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01:21, 11 अप्रैल 2009 का अवतरण
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतों!
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आंखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुंह भी
कैसे मुसका लेते हैं इतना,
और आप!
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उंगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढंके
आंचलों में सिमटे
नंगई संवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों!
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं-चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
ऑंखों की देख
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।
क्रम
कितने दिन हो चुके
हवाएं
दौड़ रहीं
कितनी रातें
गईं
भोर-पर-भोर गईं
मिलता
कुछ भी नहीं
हथेली खाली है
होता
कुछ भी नहीं
काँपती
डाली है।
दिन
लोगों की जिंदगी में
सो गया है दिन,
अब वे
नए दिन की
पुरानी पड़ती थकानों से
झुँझलाए
हंस कर नहीं मिलते उससे।
उम्मीद से
साल-भर बाट जोहते हैं
नए साल की,
उनींदी रात को जगा
सिंगार करते हैं उसका
फिर छोड़ देते हैं
साल के पहले उजाले के
ऑंगन में
ले जा,
उजाला
अपने उजाले में फीकी पड़ी
उसकी चमक पर
रीझे भी तो
कैसे?