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18:48, 13 अप्रैल 2009 के समय का अवतरण
लगने जैसा
लिखा नहीं कुछ
बहुत दिनों से
कर न सका स्वायत्त ठीक से कभी
स्वयं की ही भाषा को,
मूर्त न कर पाया अनुभूते क्षण की -
आशा अभिलाषा को
कोरे थान सफेद खादी के
पड़े रह गये धुले नांद में,
रंगने जैसा
रंगा नहीं कुछ
बहुत दिनों से
अपराधी होकर मुतलक मैं,
रहा नहीं दो दिन कारा में
जीवन जिया न हमने औघट -
या गहरे धंसकर धारा में
मरने जैसा
मरा नहीं कुछ
बहुत दिनों से
बदल गये हैं अब मुहावरे -
जीवन के ही नहीं मौत के
अर्थ नहीं रह गये थे वही अब
पति, पत्नी के याकि सौत के
रखे रह गए सब मनसूबे -
लिखने जैसा -
लगा नहीं कुछ बहुत दिनों से