"फुंकरण कर, रे समय के साँप / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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फुंकरण कर, रे समय के साँप | फुंकरण कर, रे समय के साँप | ||
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कुंडली मत मार, अपने-आप। | कुंडली मत मार, अपने-आप। | ||
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सूर्य की किरणों झरी सी | सूर्य की किरणों झरी सी | ||
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यह मेरी सी, | यह मेरी सी, | ||
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यह सुनहली धूल; | यह सुनहली धूल; | ||
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लोग कहते हैं | लोग कहते हैं | ||
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फुलाती है धरा के फूल! | फुलाती है धरा के फूल! | ||
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इस सुनहली दृष्टि से हर बार | इस सुनहली दृष्टि से हर बार | ||
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कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार! | कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार! | ||
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मैं करूँ वरदान सा अभिशाप | मैं करूँ वरदान सा अभिशाप | ||
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फुंकरण कर, रे समय के साँप ! | फुंकरण कर, रे समय के साँप ! | ||
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क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ | क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ | ||
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चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे! | चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे! | ||
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और नीचे देखती है अलकनन्दा देख | और नीचे देखती है अलकनन्दा देख | ||
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उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख। | उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख। | ||
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डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश | डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश | ||
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ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख! | ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख! | ||
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दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग | दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग | ||
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छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग ! | छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग ! | ||
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मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप | मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप | ||
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फुंकरण कर रे, समय के साँप। | फुंकरण कर रे, समय के साँप। | ||
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किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज | किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज | ||
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नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर! | नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर! | ||
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इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास | इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास | ||
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बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर। | बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर। | ||
− | + | कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव | |
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प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव | प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव | ||
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चल कि बलि पर हो विजय की माप। | चल कि बलि पर हो विजय की माप। | ||
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फंकुरण कर, रे समय के साँप।। | फंकुरण कर, रे समय के साँप।। | ||
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19:24, 15 अप्रैल 2009 का अवतरण
फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।
सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!
इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!
मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
फुंकरण कर, रे समय के साँप !
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।
किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव
चल कि बलि पर हो विजय की माप।
फंकुरण कर, रे समय के साँप।।