"घर बसे हैं / ऋषभ देव शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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कि फिर भी | कि फिर भी | ||
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घर नहीं दीवार, ओटे, | घर नहीं दीवार, ओटे, | ||
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घर न छतरी; | घर न छतरी; | ||
झोंपड़ी भी घर नहीं है, | झोंपड़ी भी घर नहीं है, | ||
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तोड़ दो दीवार, ओटे, | तोड़ दो दीवार, ओटे, | ||
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मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी, | मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी, | ||
छप्परों को | छप्परों को | ||
− | उड़ा ले जाओ | + | उड़ा ले जाओ भले। |
घोंसले उजडें भले ही, | घोंसले उजडें भले ही, | ||
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कि अब भी | कि अब भी | ||
घर बसे हैं, | घर बसे हैं, | ||
− | घर बचे हैं ! | + | घर बचे हैं! |
− | + | ||
घर अडिग विश्वास, | घर अडिग विश्वास, | ||
− | निश्छल स्नेह है | + | निश्छल स्नेह है घर। |
दादियों औ' नानियों की आँख में | दादियों औ' नानियों की आँख में | ||
− | तैरते सपने हमारे | + | तैरते सपने हमारे घर। |
घर पिता का है पसीना, | घर पिता का है पसीना, | ||
घर बहन की राखियाँ हैं, | घर बहन की राखियाँ हैं, | ||
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ये घर खड़े हैं; | ये घर खड़े हैं; | ||
पत्नियों की माँग में | पत्नियों की माँग में | ||
− | ये घर जड़े | + | ये घर जड़े हैं। |
आपसी सद्भाव, माँ की | आपसी सद्भाव, माँ की | ||
− | + | मुट्ठियों में | |
घर कसे हैं, | घर कसे हैं, | ||
क्यों भला अचरज | क्यों भला अचरज | ||
कि अब तक | कि अब तक | ||
घर बसे हैं- | घर बसे हैं- | ||
− | घर बचे | + | घर बचे हैं। |
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00:16, 20 अप्रैल 2009 के समय का अवतरण
तोड़ने की साजिशें हैं
हर तरफ़,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं!
भींत, ओटे
जो खड़े करते रहे
पीढियों से हम;
तानते तंबू रहे
औ' सुरक्षा के लिए
चिक डालते;
एक अपनापन
छतों सा-
छतरियों सा-
शीश पर धारे
युगों से चल रहे;
झोंपड़ी में-
छप्परों में-
जिन दियों की
टिमटिमाती रोशनी में
जन्म से
सपने हमारे पल रहे;
लाख झंझा-
सौ झकोरे-
आँधियाँ तूफान कितने
टूटते हैं रोज उन पर
पश्चिमी नभ से से उमड़कर!
दानवों के दंश कितने
तृणावर्तों में हँसे हैं,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं!
घर नहीं दीवार, ओटे,
घर नहीं तंबू,
घर नहीं घूंघट;
घर नहीं छत,
घर न छतरी;
झोंपड़ी भी घर नहीं है,
घर नहीं छप्पर।
तोड़ दो दीवार, ओटे,
फाड़ दो तंबू,
जला दो घूंघटों को,
छत गिरा दो,
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले।
घोंसले उजडें भले ही,
घर नहीं ऐसे उजड़ते.
अक्षयवटों जैसे हमारे घर
हमारे अस्तित्व में
गहरे धँसे हैं,
है नहीं अचरज
कि अब भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं!
घर अडिग विश्वास,
निश्छल स्नेह है घर।
दादियों औ' नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर।
घर पिता का है पसीना,
घर बहन की राखियाँ हैं,
भाइयों की बाँह पर
ये घर खड़े हैं;
पत्नियों की माँग में
ये घर जड़े हैं।
आपसी सद्भाव, माँ की
मुट्ठियों में
घर कसे हैं,
क्यों भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं-
घर बचे हैं।