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अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो|
 
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो|
  
वक्त की रेत मुठ्ठी में रुकती नहीं,
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वक़्त की रेत मुट्ठी में रुकती नहीं,
 
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो|
 
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो|
  

14:28, 21 अप्रैल 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: यार दहलीज़ छू कर
  रचनाकार: विजय वाते

यार दहलीज़ छू कर ना जाया करो|
तुम कभी दोस्त बनकर भी आया करो|

क्या ज़रूरी है सुख दुख में ही बात हो,
जब कभी फोन यूँ ही लगाया करो|

बीते आवारा दिन याद करके कभी,
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो|

वक़्त की रेत मुट्ठी में रुकती नहीं,
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो|

हमने गुमटी पर कल चाय पी थी "विजय"
तुम भी आकर के मज़मे लगाया करो|