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"हास्य-रस -दो / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर
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"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये" | "फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये" | ||
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जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन. | जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन. | ||
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11:49, 26 अप्रैल 2009 का अवतरण
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
*
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये"
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया