भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कनबहरे / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल }}<poem> कोई नहीं सुनता झरी पत्ति...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:31, 28 अप्रैल 2009 का अवतरण
कोई नहीं सुनता
झरी पत्तियों की झिरझिरी
न पत्तियों के पिता पेड़
न पेड़ों के मूलाधार पहाड़
न आग का दौड़ता प्रकाश
न समय का उड़ता शाश्वत विहंग
न सिंधु का अतल जल-ज्वार
सब हैं -
सब एक दूसरे से अधिक
कनबहरे,
अपने आप में बंद, ठहरे ।