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"अक्सर मुझको अपने / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'" के अवतरणों में अंतर
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अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है | अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है | ||
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अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है | अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है | ||
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बेजाना पहचाना अपना घर लगता है | बेजाना पहचाना अपना घर लगता है | ||
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रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है | रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है | ||
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तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी | तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी | ||
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मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है | मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है | ||
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इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं | इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं | ||
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पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है | पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है | ||
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जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं | जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं | ||
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अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है | अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है | ||
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आवारा मौसम की मनमानी के चलते | आवारा मौसम की मनमानी के चलते | ||
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मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है | मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है | ||
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सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें | सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें | ||
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क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है। | क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है। | ||
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होनी अनहोनी की इस खींचातानी में | होनी अनहोनी की इस खींचातानी में | ||
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अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है | अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है | ||
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मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा | मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा | ||
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अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है | अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है | ||
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14:48, 10 मई 2009 के समय का अवतरण
अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है
अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है
बेजाना पहचाना अपना घर लगता है
रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है
तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी
मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है
इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं
पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है
जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं
अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है
आवारा मौसम की मनमानी के चलते
मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है
सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें
क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है।
होनी अनहोनी की इस खींचातानी में
अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है
मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा
अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है