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मौन के विराट अश्वत्थ से जो मुझे ले गए
वाक् और अर्थ के समुच्चय-बोध तक
वे मेरे गुरुजन नहीं थे। वे दिशाहारा थे।
अपने ही तर्कों के गलित वाग्जाल से पराजित
उद्भ्रान्त।
उसके पहले उन्होंने कभी भी चुनौतियाँ नहीं स्वीकारी थीं
उसके पहले कभी भी उन्होंने निर्मम किन्तु
आत्म-परिशोधक पराजय का मुँह नहीं देखा था।
इसके पहले कभी भी उन्होंने इतिहास की निहाई पर
सिर नहीं रखा था।
वे केवल आप्त-वचन उद्धृत कर गर्व से
निरीह जनत को फाड़ते हुए
प्रतिष्ठा के बिल में घुस जाया करते थे।
उन्होंने परस्पर सहमति की चिकनी बैसाखियाँ लगा रखी थीं
वे सन्तुष्टि के अंधेरे में परम निश्चिन्तता से
उल्टे लटके हुए सोए-सोए सड़ रहे थे।
उन्हें सिर्फ़ अपच था - उन्हें सिर्फ़ बार-बार
रह-रह उल्टियाँ-सी आती थीं
जिन्हें भोली जनता में
शास्त्र-विवेचन का नाम दिया जाता था।
अपने अस्वास्थ्य असंशय और कायर अहम् की
भीड़ में सुरक्षित थे वे।
वे सफ़ेदपोश, वे गौरांग, वे तथाकथित अहींसक, नकली
विद्वता के ताम्रपत्रधारी वे - असल में
सत्य के नक़ाबपोश, कुंठित हत्यारे थे।
काव्य और शास्त्र का समागम उनके लिए महज
अय्याशी थी।
कहीं कोई मुँहामुहीं नहीं थी
उनकी जर्जर अय्याशी को आर-पार चीर देने वाली
वह वाक् की कटार - लपलपाती
इसके पहले कहीं नहीं थी।
सदियों के बाद उन्हें अचानक वह
वाक् की कटार लपलपाती दिख गई थी
जिसने उनकी षड्यन्त्र की पिटारी को
झटके से खोल दिया था
जिसने उनके मुलम्मा चढ़े स्वर्णिम सिंहासन को
यहाँ-वहाँ खरोंच दिया था
जिसने उन्हें अपदस्थ कर बारिश में भीगी हुई
चिकनी और काली मिट्टी में घुटनों तक उतार दिया था
जो उनकी सन्तुष्टि के अंधेरे में एक गहरे
रक्तवर्ण घाव की तरह आकर बैठ गई थी
जो उनकी प्रतिष्ठा के दिल में गर्म-गर्म
तरल शीशे-सी गलगल कर भर गई थी
जिसने उनकी सुरक्षा की दीवार मे बाहर की हवा के लिए
एक छोटा-सा, जलता हुआ छेद कर दिया था।
जिसने उनके शब्द-उपदंश में हल्का-सा नश्तर लगा दिया था
जिसने उनकी चमड़ी के नीचे बहते,
गन्दे परनालों को खोलकर
जन-साधारण को नाक बन्द करने और
स्तब्ध रह जाने पर विवश कर दिया था।
मौन के विराट अश्वत्थ से जो मुझे ले गए
वाक् और अर्थ के समुच्चय-बोध तक
वे मेरे गुरुजन नहीं थे
वे दिशाहारा थे।
अन्दर से टूटे, दयनीय। अपने ही जर्जर
अय्याश, वाग्जाल से पराजित- विक्षुब्ध।
दिशा-दिशा, नगर-नगर, गाँव-गाँव
जंगल-जंगल भटकते हुए परेशान।
बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए
नंगे। विरूप। विक्षिप्त। भयाक्रांत।
बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए
उन्हें कोई महामूर्ख चाहिए था।