"कालिदास / दूधनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए | बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए | ||
उन्हें कोई महामूर्ख चाहिए था। | उन्हें कोई महामूर्ख चाहिए था। | ||
+ | उन्हें कोई काला-कलूटा, भदेस एक | ||
+ | मिट्टी का माधो चाहिए था। | ||
+ | मछलिया पकड़ता हुआ कालू मल्लाह | ||
+ | या गाएँ चराता हुआ बुद्धू गोपाल | ||
+ | हल चलाता हुआ गबदू हलवाहा | ||
+ | या लकड़ियाँ काटता हुआ भोलू लकड़हारा-- | ||
+ | जो सहज ही उनकी चकाचौंध से चकित रह जाए | ||
+ | अपने भोलेपन को, मिट्टी में सँवराई अपनी | ||
+ | सज्जनता को जो श्रद्धागद्गद् हो अर्पित कर दे, | ||
+ | जो उनके दिए हुए कृत्रिम गूंगेपन को | ||
+ | महज़ एक भोली-सी लालच में ओढ़ ले | ||
+ | और उसे मौन का विशाल अश्वत्थ घोषित कर | ||
+ | वाक् की कटार को साबुत ही लील जाए। | ||
+ | जो उनके मोर्चा-लगे ताम्रपत्रों की रक्षा में योग दे | ||
+ | जो उनकी टूटी बैसाखियाँ फिर जोड़ दे | ||
+ | जो उनकी छिपी हुई कायर बर्बरता को बल दे | ||
+ | जो बिना जाने ही सिंहासन-रक्षा में उनका सहयोगी हो | ||
+ | जो अपने निपट भोलेपन में ’सच’ की दोनों आँखें फोड़ दे | ||
+ | और उन्हीं की तरह ’ब्राह्मण’ कहलाने का झूठा | ||
+ | :::अधिकार प्राप्त करे। | ||
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+ | मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर बैठा था | ||
+ | वह मेरा कृष्णकाय, गहरा, प्रशान्त और अंधियारा मौन। | ||
+ | वह ऊँची डाल सदियों से बंझा हो चुकी थी | ||
+ | मौन के विराट अश्वत्थ में वह बंझा डाल चुपचाप | ||
+ | हरा-हरा ज़हर बन अन्दर को रेंग रही थी | ||
+ | वह बंझा डाल मेरे उस कृष्णकाय, गहरे अंधियारे मौन में | ||
+ | अपना वह कृत्रिम गूंगापन चुपचाप घोल रही थी | ||
+ | वह बंझा डाल अपने उस कृत्रिम गूंगेपन से | ||
+ | वाणी के अनहोने सच को लगातार-लगातार | ||
+ | अपमानित कर, एक घुटन भरी, | ||
+ | बदबूदार पोथी में बन्द करा रही थी | ||
+ | वह बंझा डाल-- चारों ओर, अनवरत, असीम | ||
+ | अन्तःस्थिति पैल रही थी--अन्दर-अन्दर | ||
+ | जनता के मन में, निर्णय के क्षणों में, शासन-तंत्र में | ||
+ | बच्चों की आँखों में, योद्धा के पौरुष में | ||
+ | कवि के असीम काव्य-मौन में। | ||
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+ | वह उनकी समझ में नहीं आया-- | ||
+ | मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर | ||
+ | कृष्णकाय, गहरे, प्रशान्त उस अंधियारे मौन का बैठना | ||
+ | वह उनकी समझ में नहीं आया। | ||
+ | शब्दहीन खट-खट से, शब्दहीन, एकाकी | ||
+ | दृढ़ निरन्तरता से आँख मूंद | ||
+ | शब्दहीन हवा में चमचमाती | ||
+ | मौन की कुल्हाड़ी से | ||
+ | उस गूंगे मौन को छिन्न-भिन्न करना-- | ||
+ | वह उनकी समझ में नहीं आया | ||
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01:33, 14 मई 2009 का अवतरण
मौन के विराट अश्वत्थ से जो मुझे ले गए
वाक् और अर्थ के समुच्चय-बोध तक
वे मेरे गुरुजन नहीं थे। वे दिशाहारा थे।
अपने ही तर्कों के गलित वाग्जाल से पराजित
उद्भ्रान्त।
उसके पहले उन्होंने कभी भी चुनौतियाँ नहीं स्वीकारी थीं
उसके पहले कभी भी उन्होंने निर्मम किन्तु
आत्म-परिशोधक पराजय का मुँह नहीं देखा था।
इसके पहले कभी भी उन्होंने इतिहास की निहाई पर
सिर नहीं रखा था।
वे केवल आप्त-वचन उद्धृत कर गर्व से
निरीह जनत को फाड़ते हुए
प्रतिष्ठा के बिल में घुस जाया करते थे।
उन्होंने परस्पर सहमति की चिकनी बैसाखियाँ लगा रखी थीं
वे सन्तुष्टि के अंधेरे में परम निश्चिन्तता से
उल्टे लटके हुए सोए-सोए सड़ रहे थे।
उन्हें सिर्फ़ अपच था - उन्हें सिर्फ़ बार-बार
रह-रह उल्टियाँ-सी आती थीं
जिन्हें भोली जनता में
शास्त्र-विवेचन का नाम दिया जाता था।
अपने अस्वास्थ्य असंशय और कायर अहम् की
भीड़ में सुरक्षित थे वे।
वे सफ़ेदपोश, वे गौरांग, वे तथाकथित अहींसक, नकली
विद्वता के ताम्रपत्रधारी वे - असल में
सत्य के नक़ाबपोश, कुंठित हत्यारे थे।
काव्य और शास्त्र का समागम उनके लिए महज
अय्याशी थी।
कहीं कोई मुँहामुहीं नहीं थी
उनकी जर्जर अय्याशी को आर-पार चीर देने वाली
वह वाक् की कटार - लपलपाती
इसके पहले कहीं नहीं थी।
सदियों के बाद उन्हें अचानक वह
वाक् की कटार लपलपाती दिख गई थी
जिसने उनकी षड्यन्त्र की पिटारी को
झटके से खोल दिया था
जिसने उनके मुलम्मा चढ़े स्वर्णिम सिंहासन को
यहाँ-वहाँ खरोंच दिया था
जिसने उन्हें अपदस्थ कर बारिश में भीगी हुई
चिकनी और काली मिट्टी में घुटनों तक उतार दिया था
जो उनकी सन्तुष्टि के अंधेरे में एक गहरे
रक्तवर्ण घाव की तरह आकर बैठ गई थी
जो उनकी प्रतिष्ठा के दिल में गर्म-गर्म
तरल शीशे-सी गलगल कर भर गई थी
जिसने उनकी सुरक्षा की दीवार मे बाहर की हवा के लिए
एक छोटा-सा, जलता हुआ छेद कर दिया था।
जिसने उनके शब्द-उपदंश में हल्का-सा नश्तर लगा दिया था
जिसने उनकी चमड़ी के नीचे बहते,
गन्दे परनालों को खोलकर
जन-साधारण को नाक बन्द करने और
स्तब्ध रह जाने पर विवश कर दिया था।
मौन के विराट अश्वत्थ से जो मुझे ले गए
वाक् और अर्थ के समुच्चय-बोध तक
वे मेरे गुरुजन नहीं थे
वे दिशाहारा थे।
अन्दर से टूटे, दयनीय। अपने ही जर्जर
अय्याश, वाग्जाल से पराजित- विक्षुब्ध।
दिशा-दिशा, नगर-नगर, गाँव-गाँव
जंगल-जंगल भटकते हुए परेशान।
बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए
नंगे। विरूप। विक्षिप्त। भयाक्रांत।
बदले की धुंधुआती आग में धुँआते हुए
उन्हें कोई महामूर्ख चाहिए था।
उन्हें कोई काला-कलूटा, भदेस एक
मिट्टी का माधो चाहिए था।
मछलिया पकड़ता हुआ कालू मल्लाह
या गाएँ चराता हुआ बुद्धू गोपाल
हल चलाता हुआ गबदू हलवाहा
या लकड़ियाँ काटता हुआ भोलू लकड़हारा--
जो सहज ही उनकी चकाचौंध से चकित रह जाए
अपने भोलेपन को, मिट्टी में सँवराई अपनी
सज्जनता को जो श्रद्धागद्गद् हो अर्पित कर दे,
जो उनके दिए हुए कृत्रिम गूंगेपन को
महज़ एक भोली-सी लालच में ओढ़ ले
और उसे मौन का विशाल अश्वत्थ घोषित कर
वाक् की कटार को साबुत ही लील जाए।
जो उनके मोर्चा-लगे ताम्रपत्रों की रक्षा में योग दे
जो उनकी टूटी बैसाखियाँ फिर जोड़ दे
जो उनकी छिपी हुई कायर बर्बरता को बल दे
जो बिना जाने ही सिंहासन-रक्षा में उनका सहयोगी हो
जो अपने निपट भोलेपन में ’सच’ की दोनों आँखें फोड़ दे
और उन्हीं की तरह ’ब्राह्मण’ कहलाने का झूठा
अधिकार प्राप्त करे।
मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर बैठा था
वह मेरा कृष्णकाय, गहरा, प्रशान्त और अंधियारा मौन।
वह ऊँची डाल सदियों से बंझा हो चुकी थी
मौन के विराट अश्वत्थ में वह बंझा डाल चुपचाप
हरा-हरा ज़हर बन अन्दर को रेंग रही थी
वह बंझा डाल मेरे उस कृष्णकाय, गहरे अंधियारे मौन में
अपना वह कृत्रिम गूंगापन चुपचाप घोल रही थी
वह बंझा डाल अपने उस कृत्रिम गूंगेपन से
वाणी के अनहोने सच को लगातार-लगातार
अपमानित कर, एक घुटन भरी,
बदबूदार पोथी में बन्द करा रही थी
वह बंझा डाल-- चारों ओर, अनवरत, असीम
अन्तःस्थिति पैल रही थी--अन्दर-अन्दर
जनता के मन में, निर्णय के क्षणों में, शासन-तंत्र में
बच्चों की आँखों में, योद्धा के पौरुष में
कवि के असीम काव्य-मौन में।
वह उनकी समझ में नहीं आया--
मौन के विराट अश्वत्थ की उस ऊँची डाल पर
कृष्णकाय, गहरे, प्रशान्त उस अंधियारे मौन का बैठना
वह उनकी समझ में नहीं आया।
शब्दहीन खट-खट से, शब्दहीन, एकाकी
दृढ़ निरन्तरता से आँख मूंद
शब्दहीन हवा में चमचमाती
मौन की कुल्हाड़ी से
उस गूंगे मौन को छिन्न-भिन्न करना--
वह उनकी समझ में नहीं आया