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"चिराग़ जलते हैं / सूर्यभानु गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
 
जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
  

16:39, 24 मई 2009 का अवतरण

जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,

घर से बाहर वही निकलते हैं।


बर्फ़ गिरी है जिन इलाकों में,

धूप के कारोबार चलते हैं।


दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं,

तब कहीं रास्ते पिघलते हैं।


ऐसी कोई है अब मकानों पर,

धूप के पांव भी फिसलते हैं।


खुदरसी उम्र भर भटकती है,

लोग इतने पते बदलते हैं।


हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,

मूड आता है तब निकलते हैं।