"सखि, यह रंगों की रात नहीं सोने की / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | ||
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अंबर-अंतर गल धरती का | अंबर-अंतर गल धरती का | ||
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अंचल आज भिगोता, | अंचल आज भिगोता, | ||
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दिशि-दिशि मुखरित होता, | दिशि-दिशि मुखरित होता, | ||
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और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन | और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन | ||
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फिर-फिर पवन उठाता, | फिर-फिर पवन उठाता, | ||
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यह मदमातों की रात नहीं सोने की; | यह मदमातों की रात नहीं सोने की; | ||
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | ||
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हैं अनगिन अरमान मिलन की | हैं अनगिन अरमान मिलन की | ||
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झूल रही पलकों पर कितने | झूल रही पलकों पर कितने | ||
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एक-एक पल में भरना है | एक-एक पल में भरना है | ||
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युग-युग की चाहों को, | युग-युग की चाहों को, | ||
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सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की; | सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की; | ||
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | ||
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बाट जोहते इस रजनी की | बाट जोहते इस रजनी की | ||
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किंतु अंत में दुनिया हारी | किंतु अंत में दुनिया हारी | ||
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और हमीं तुम जीते, | और हमीं तुम जीते, | ||
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आँखें पाँख झुकाएँ, | आँखें पाँख झुकाएँ, | ||
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सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की; | सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की; | ||
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | ||
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वही समय जिसकी दो जीवन | वही समय जिसकी दो जीवन | ||
− | + | करते थे प्रत्याशा, | |
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वही समय जिस पर अटकी थी | वही समय जिस पर अटकी थी | ||
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यौवन की सब आशा, | यौवन की सब आशा, | ||
− | + | इस वेला में क्या-क्या करने | |
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को हम सोच रहे थे, | को हम सोच रहे थे, | ||
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सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की; | सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की; | ||
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की। | ||
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10:59, 5 जून 2009 का अवतरण
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
अंबर-अंतर गल धरती का
अंचल आज भिगोता,
प्यार पपीहे का पुलकित स्वर
दिशि-दिशि मुखरित होता,
और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन
फिर-फिर पवन उठाता,
यह मदमातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
हैं अनगिन अरमान मिलन की
ले दे के दो घडियाँ,
झूल रही पलकों पर कितने
सुख सपनों की लड़ियाँ,
एक-एक पल में भरना है
युग-युग की चाहों को,
सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
बाट जोहते इस रजनी की
आज्र कठिन दिन बीते,
किंतु अंत में दुनिया हारी
और हमीं तुम जीते,
नर्म नींद के आगे अब क्यों
आँखें पाँख झुकाएँ,
सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
वही समय जिसकी दो जीवन
करते थे प्रत्याशा,
वही समय जिस पर अटकी थी
यौवन की सब आशा,
इस वेला में क्या-क्या करने
को हम सोच रहे थे,
सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।