"फुटकर शे’र / दत्तात्रिय ‘कैफ़ी’" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दत्तात्रिय कैफ़ी }} <poem> '''1. है मेरे दिल में वोह आहे...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:59, 4 जुलाई 2009 के समय का अवतरण
1.
है मेरे दिल में वोह आहें कि जो बिजली न बनी।
मेरी आँखों में वोह क़तरा है जो तूफ़ाँ न हुआ॥
2.
ग़म रहा उनका जो दोज़ख़ में पडे़ जलते हैं।
मेरे ख़ुश होने का जन्नत में भी सामाँ न हुआ॥
3.
राज़ उनके खुले जाते हैं एक-एक सभू पर।
और इसपै तमाशा है कि मैं कुछ नहीं कहता॥
4.
हाल यह बेख़ुदी-ये-इश्क़ में ‘कैफ़ी’ का हुआ।
शेख़ काफ़िर उसे और गबर<ref>अग्निपूजक</ref> मुसलमाँ समझा॥
5.
यूँ अगर देखिये क्या कुछ नहीं यह मुश्तेग़ुबार।
और अगर सोंचिये तो ख़ाक भी इन्साँ में नहीं॥
6.
चारागर को हैरत है इरतक़ाये-वहशत से।
पाँव में जो चक्कर था आ रहा है वो सर में॥
7.
सुहबतें अगली जो याद आती हैं, जी कटता है।
कोई पूछे भी तो कहते हैं, हमें याद नहीं॥
8.
हाँ-हाँ मगर ऐ दोस्त! तू तदबीर किए जा।
यह भी तेरी तक़दीर के दफ़्तर में लिखा है॥
9.
गुले-पज़मुर्दा की बिखरी हुई कुछ पत्तियाँ देखीं।
तो इक बेदिल यह चीख़ उट्ठा "मेरा दिल है, मेर दिल है"॥
10.
तुमसे अब क्या कहें, वोह चीज़ है दागे़-गमे-इश्क़।
कि छुपाये न छुपे और दिखाए न बने॥
11.
बात वोह कह गए आए भी तो किस तरह यक़ीं।
और सहर इसमें कुछ ऐसा कि भुलाए न बने॥
12.
जिसको ख़बर नहीं, उसे जोशो-ख़रोश है।
जो पा गया है राज़, वो गुम है, ख़मोश है॥
13.
पैकरे-ख़ाक है तू चर्ख़ पै छा मिस्ले-गुबार।
तुझको मिट्टी में मिलाया है जबीं-साई ने॥
15.
नहीं मालूम अज़ाँ थी कि वो बाँगेनाक़ूस<ref>शंख-ध्वनि</ref>।
कहीं खींचे लिए जाती है इक आवाज़ मुझे॥
16.
"इनक़लाब आने को ऐसा है न आया हो कभी"।
दरो-दीवार से आती है यह आवाज़ मुझे॥
17.
जो ज़िन्दादिल हैं हमेशा जवान रहते हैं।
बहारे-ज़ीस्त यक़ीनन इसी शबाब में है॥
18.
हम तो बुरे बने यूँ ही नाले से, आह से।
दिल में जो था वोह फूट ही निकला निगाह से॥
19.
आबाद है यह ख़ाना-ए-दिल इक ख़याल से।
दुनिया के हादसे इसे वीराँ न कर सके॥
20.
साक़ी की इक नज़र ही हमें मस्त कर गई।
किसको सुराही-ओ-ख़ुमो-साग़र का होश था॥