"क़त्ले-आफ़ताब / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग | सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग | ||
ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बलन्द रात का नाम | ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बलन्द रात का नाम | ||
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यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं | यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं | ||
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं | मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं | ||
− | वो | + | वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं |
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग | कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग | ||
जबीने-शौक़ नहीं संगे-आस्ताँ भी नहीं | जबीने-शौक़ नहीं संगे-आस्ताँ भी नहीं | ||
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इक इन्तिहा है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा के लिए | इक इन्तिहा है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा के लिए | ||
बिछे हैं खा़र कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के | बिछे हैं खा़र कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के | ||
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− | उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ- | + | मोशी मुह्र-ब-लब<ref> स्तब्ध,मौन</ref>है किसी सदा के लिए |
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वो पहना शम्अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज | वो पहना शम्अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज | ||
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब के जाम | सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब के जाम | ||
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लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं | लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं | ||
तमाम पैरहने-शब में भर गए हैं शरार | तमाम पैरहने-शब में भर गए हैं शरार | ||
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जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम | जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम | ||
− | नफ़स में | + | नफ़स में निक़ |
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ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा | ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा | ||
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09:26, 12 जुलाई 2009 का अवतरण
क़त्ले-आफ़ताब<ref> </ref>
=========
शफ़क़<ref>सवेरे या शाम के समय क्षितिज की लालिमा </ref>के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब का रंग
उफ़ुक़
<ref>क्षितिज </ref> के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग
ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बलन्द रात का नाम
यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं
वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़ नहीं संगे-आस्ताँ भी नहीं
रक़ीब जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनू सुन रहे हैं अफ़साना
दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
कोई हसीन नहीं किससे अब वफ़ा कीजे
सिवाय इसके कि क़ातिल ही को दुआ दीजे
मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
इक इन्तिहा है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा के लिए
बिछे हैं खा़र कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के
ख़
मोशी मुह्र-ब-लब<ref> स्तब्ध,मौन</ref>है किसी सदा के लिए
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा<ref>गीत और स्वर </ref> के लिए
वो पहना शम्अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब के जाम
पलक-पलक पे फ़ि
रोज़ाँ<ref>आलोकित </ref> हैं आँसुओं के चिराग़
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
तमाम पैरहने-शब में भर गए हैं शरार
चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
लचक रही हैं कहीं शाखे़-गुल की तलवारें
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
महक रहा है लबो-आरिज़ो-नज़र की शराब
जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
नफ़स में निक़
हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब<ref>इन्क़िलाब के पैग़ाम की ख़ुशबू </ref> लिए
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
सहर के दोश<ref>काँधा </ref> पे इक ताज़ा आफ़ताब लिए