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"अभंग-2 / दिलीप चित्रे" के अवतरणों में अंतर
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छोड़ दिया जिस जगह को हमने
हथियाने उसे लगती है कतार
किन्तु पीछे हमारे कभी
कोई नहीं चलता
जहाँ जुबान बन्द की हमने
होते हैं वहीं शुरू भाषण
मौन ही के भूषण
हमें मंज़ूर
थाली देख तृप्त हो जाए
दृश्य देख हो जाए गुप्त
ऐसा मुसाफ़िर लेकिन
नहीं यहाँ।
अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले