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"अर्धसत्य-3 / दिलीप चित्रे" के अवतरणों में अंतर
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कर्म के पहले का विचार
और विचार के बाद कर्म
इनके बीच है
मेरा बलिदान
जिन-जिन क्षणों में मैं हुआ बेहोश
जिन-जिन क्षणों में मैं उलझ गया कर्म में
उन-उन क्षणों में मुझे दिखाई दी
तुम्हारी सम्भावना की सम्पूर्ण आकृति
अब मेरा कर्म हो चुका है
और मिट गई है
तुम्हारी आकृति
प्रभु!
मेरे सहित किसी को भी
आइन्दा क्षमा मत करना
सज़ा भुगतकर ही मिलने देना
हमें तुम्हारा पद
न्यायाधीश का
देखते रहना पड़ेगा अन्यथा हमें
मात्र एक-दूसरे के अस्तित्त्व का
दयनीय अर्धसत्य
और हम रह जाएंगे ऐसे ही सदा के लिए
तुम्हारी करुणा के पात्र।
अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले