"कुछ व्यथित-सी / विष्णु विराट" के अवतरणों में अंतर
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कुछ व्यथित-सी | कुछ व्यथित-सी | ||
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कुछ थकित-सी | कुछ थकित-सी | ||
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कुछ चकित-सी | कुछ चकित-सी | ||
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धूम्रवन से लौट आई लाल परियां | धूम्रवन से लौट आई लाल परियां | ||
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चक्रवाती जंगलों की आंधियों से | चक्रवाती जंगलों की आंधियों से | ||
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वामतंत्री कुचक्रों की व्याधियों से | वामतंत्री कुचक्रों की व्याधियों से | ||
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व्याघ्रवन में सर-सरोवर ख़ौफ़ खाए | व्याघ्रवन में सर-सरोवर ख़ौफ़ खाए | ||
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कांपते-से हिरन के दल थरथराए | कांपते-से हिरन के दल थरथराए | ||
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हार कर सब दाव | हार कर सब दाव | ||
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सारे स्वप्न अपने | सारे स्वप्न अपने | ||
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कुछ भ्रमित-सी | कुछ भ्रमित-सी | ||
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कुछ श्रमित-सी | कुछ श्रमित-सी | ||
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प्रकंपित-सी | प्रकंपित-सी | ||
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उस विजन तक जा न पाई | उस विजन तक जा न पाई | ||
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लाल परियां | लाल परियां | ||
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राग से और रंग से मुंह मोड़ती-सी | राग से और रंग से मुंह मोड़ती-सी | ||
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स्वर्ण कमलों के प्रलोभन | स्वर्ण कमलों के प्रलोभन | ||
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छोड़ती-सी | छोड़ती-सी | ||
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नदी झरने जादुई चक्कर घनेरे | नदी झरने जादुई चक्कर घनेरे | ||
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हर लहर में मगरच्छों के बसेरे | हर लहर में मगरच्छों के बसेरे | ||
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श्लथ हुए कटिबंध | श्लथ हुए कटिबंध | ||
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भींगी कंचुकी में | भींगी कंचुकी में | ||
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कुछ डरी-सी | कुछ डरी-सी | ||
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अधमरी-सी | अधमरी-सी | ||
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सिरफिरी-सी | सिरफिरी-सी | ||
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हाल कुछ समझा न पाई | हाल कुछ समझा न पाई | ||
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लालपरियां | लालपरियां | ||
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सांध्यवर्णी शुचि ॠचाएं | सांध्यवर्णी शुचि ॠचाएं | ||
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गुनगुनाते | गुनगुनाते | ||
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व्योम से कुछ स्वर्णकेशी यक्ष आते | व्योम से कुछ स्वर्णकेशी यक्ष आते | ||
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रंगपर्वों के निमंत्रण दे रहे हैं | रंगपर्वों के निमंत्रण दे रहे हैं | ||
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गूंजते नभ तक प्रमादी कहकहे हैं | गूंजते नभ तक प्रमादी कहकहे हैं | ||
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ऊर्ध्वगामी दृष्टियों के निम्न | ऊर्ध्वगामी दृष्टियों के निम्न | ||
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स्वारथ | स्वारथ | ||
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देवतामन/ॠषि पुरातन | देवतामन/ॠषि पुरातन | ||
+ | |||
सब अपावन | सब अपावन | ||
− | + | ||
+ | स्वस्तिगायन गा न पाईं | ||
+ | |||
लाल परियां। | लाल परियां। |
00:06, 13 सितम्बर 2006 का अवतरण
कवि: विष्णु विराट
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कुछ व्यथित-सी
कुछ थकित-सी
कुछ चकित-सी
धूम्रवन से लौट आई लाल परियां
चक्रवाती जंगलों की आंधियों से
वामतंत्री कुचक्रों की व्याधियों से
व्याघ्रवन में सर-सरोवर ख़ौफ़ खाए
कांपते-से हिरन के दल थरथराए
हार कर सब दाव
सारे स्वप्न अपने
कुछ भ्रमित-सी
कुछ श्रमित-सी
प्रकंपित-सी
उस विजन तक जा न पाई
लाल परियां
राग से और रंग से मुंह मोड़ती-सी
स्वर्ण कमलों के प्रलोभन
छोड़ती-सी
नदी झरने जादुई चक्कर घनेरे
हर लहर में मगरच्छों के बसेरे
श्लथ हुए कटिबंध
भींगी कंचुकी में
कुछ डरी-सी
अधमरी-सी
सिरफिरी-सी
हाल कुछ समझा न पाई
लालपरियां
सांध्यवर्णी शुचि ॠचाएं
गुनगुनाते
व्योम से कुछ स्वर्णकेशी यक्ष आते
रंगपर्वों के निमंत्रण दे रहे हैं
गूंजते नभ तक प्रमादी कहकहे हैं
ऊर्ध्वगामी दृष्टियों के निम्न
स्वारथ
देवतामन/ॠषि पुरातन
सब अपावन
स्वस्तिगायन गा न पाईं
लाल परियां।