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"जेलख़ाने की चिट्ठी / नाज़िम हिक़मत" के अवतरणों में अंतर

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01:18, 21 जुलाई 2009 के समय का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: नाज़िम हिक़मत  » जेलख़ाने की चिट्ठी

मेरी प्रियतमा
अपनी आखि़री चिट्ठी में
तुमने लिखा था:
दर्द से तुम्हारा सिर फटा जा रहा है
बदहवास है तुम्हारा हृदय।
तुमने लिखा था:
मुझे यदि वे लोग फाँसी देते हैं
मुझे यदि खो देती हो तुम
तो तुम ज़िन्दा नहीं रहोगी।

तुम ज़िन्दा रहोगी, मेरी प्रियतमा
मेरी याद काले धुएँ की तरह घुल जाएगी हवा में,
तुम ज़िन्दा रहोगी
मेरे हृदय की लाल बालों वाली बहन,

बीसवीं शताब्दी में
बहुत ज़्यादा हुआ तो बस एक साल है
इन्सानों के शोक की उम्र!

मृत्यु...
रस्सी के एक छोर पर लम्बा होकर झूलता रहे शरीर --
मैं ऐसी मौत नहीं चाहता
लेकिन मेरी प्रियतमा, तुम जानना
जल्लाद के बालों भरे हाथ
अगर कभी मेरे गले में
फाँसी का फन्दा पहनाए
वे बेकार ही ढूँढ़ेंगे
डर
नाज़िम की नीली आँखों में।

आखि़री सुबह के अस्फुट उजाले में
देखूँगा अपने साथियों को,
तुम्हें देखूँगा।
मेरे साथ कब्र में जाएगी
सिर्फ़ मेरी
एक असमाप्त गीत की वेदना।

दुल्हन मेरी
तुम मेरी कोमलप्राण मधुमक्खी हो
तुम्हारी आँखें शहद से भी मीठी हैं,
मैं क्यों लिखने गया तुम्हें
कि वे फाँसी देना चाहते हैं मुझे
क्यों लिखने गया!

अभी तो जिरह शुरू हुई है
और आदमी का सिर टहनी पर खिलने वाला फूल तो नहीं
कि चाहा और तोड़ लिया!
अभी इसे लेकर चिन्ता मत करो
ये सब तो दूर की बातें हैं

हाथ में अगर कुछ पैसे हों
तो एक गरम पाजामा ख़रीदकर भिजवा देना मुझे
पैरों में गठिये की तकलीफ़शुरू हो गई है।

मत भूलना कि
जिसका पति जेल में हो
उसके मन में हमेशा उत्साह रहना चाहिए।


अंग्रेज़ी से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी