भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विदेह / भारत भूषण अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारत भूषण अग्रवाल }} <poem> आज जब घर पहुंचा शाम को तो ...)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:50, 28 जुलाई 2009 के समय का अवतरण

आज जब घर पहुंचा शाम को
तो बडी अजीब घटना हुई
मेरी ओर किसी ने भी कोई ध्यान ही न दिया।
चाय को न पूछा आके पत्नी ने
बच्चे भी दूसरे ही कमरे में बैठे रहे
नौकर भी बडे ढीठ ढंग से झाडू लगाता रहा
मानो मैं हूँ ही नहीं-
तो क्या मैं हूँ ही नहीं?

और तब विस्मय के साथ यह बोध मन में जगा
अरे, मेरी देह आज कहां है?
रेडियो चलाने को हुआ-हाथ गायब हें
बोलने को हुआ-मुंह लुप्त है
दृष्टि है परन्तु हाय! आंखों का पता नहीं
सोचता हूँ- पर सिर शायद नदारद है
तो फिर-तो फिर मैं भला घर कैसे आया हूँ

और तब धीरे-धीरे ज्ञान हुआ
भूल से मैं सिर छोड आया हूँ दफ्तर में
हाथ बस में ही टंगे रह गए
आंखें जरूर फाइलों में ही उलझ गईं
मुंह टेलीफोन से ही चिपटा सटा होगा
और पैर हो न हो क्यू में रह गए हैं-
तभी तो मैं आज आया हूँ विदेह ही!

देहहीन जीवन की कल्पना तो
भारतीय संस्कृति का सार है
पर क्या उसमें यह थकान भी शामिल है
जो मुझ अंगहीन को दबोचे ही जाती है?