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तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल लानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप वारन तीर को, सिमिट सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥
कं तीर पर अमल कमल सोभित बहु भांतिन।
कहुं सैवालन मध्य कुमुदनी लग रहि पांतिन॥
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत निज सोभा।
कै उमगे प्रिय प्रिया प्रेम के अनगिन गोभा॥
कै करिके कर बहु पीय को, टेरत निज ढिंग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै, चलति मिलन मन मोहई॥