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"एवंकार बीअ लहइ कुसुमिअउ अरविंदए / कण्हपा" के अवतरणों में अंतर

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एवंकार बीअ लहइ कुसुमिअउ अरविंदए।
महुअर रुएँ सुरत्प्रवीर जिंघइ म अरंदए॥
जिमि लोण बिलज्जइ पणिएहि तिमि घरणी लइ चित्त।
समरस जाइ तक्खणो जइ पुणु ते सम चित्त॥

(सहस्रार कमल में महामुद्रा धारण कर सुरतवीर (योगी) उसी प्रकार आनंद का अनुभव करता है जैसे भौंरा पराग को सूँघता है।

यदि साधक समरसता प्राप्त करना चाहता है तो अपने चित्त को गृहिणी (महामुद्रा) में उसी प्रकार घुला मिला दे जैसे पानी में नमक घुल मिल जाता है।