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कर चरण वर कुसुम लेवि। जिणु सुमिरवि पुप्फांजलि खिवेवि॥
फासुय सुयंद रस परिमलाइं। अहिल सिरि असेसइं तरूहलाइं॥
थिउ दीसवंतु खणु इक्कु जाम। दिनमणि अत्थ वणहु ढुक्कुताम॥
हुअ संध तेय तंबिर सराय। रत्तं वरू णं पंगुरिवि आय॥
पहि पहिय थक्क विहडिय रहंग। णिय-णिय आवासहो गय विहंग॥
मउलिय रविंद वम्महु वितट्ट। उप पंत बाल मिहुणह मरट्टु॥
परिगलिय संझ तं णिएवि राइ। असइ व संकेयहो चुक्क णाइ॥
हुअ कसण सवत्ति अ मच्छरेण। सेरि पहयणाइं मसि खप्परेण॥
हुअ रयणि बहल कज्जल समील। जगु गिलिबि णाइं थिय विसम सील॥


किरण रूपी पैरों से दौडकर, सुंदर फूल चुनकर, 'जिन का स्मरण कर, उनके चरणों में पुष्पांजलि बिखेरकर, परिमल की सुगंध और रस का पानकर, निखिल अभीष्ट फलों को प्राप्त करता हुआ सूर्य क्षणभर अस्पताल पर विश्राम कर वन में अस्त हो गया। प्रेम से भरी हुई ललाईयुक्त तेज से प्रदीा संध्या लाल साडी (लाल आकाश) धारण कर आई। पथिक रास्ते में ठहर गए, चक्रवाक के जोडे बिछुड गए, पक्षी अपने घोसलों में चले गए। कमल बंद हो गए। कामदेव का प्रसार होने लगा। नए मिथुनों में गर्व उत्पन्न होने लगा। यह देख विप्रलब्धा (संकेत च्युत) नायिका के समान प्रेम से भरी (ललाईयुक्त) कुलटा संध्या चली गई। वह सौत की भाँत डाह से काली पड गई जैसे किसी ने उसके सिर पर काजल का खप्पर दे मारा हो। वह घने काजल-सी काली रात बन गई और अपने विषम स्वभाव को लिए संसार में फैल गई।