भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पावक सर्व अंग काठहिं माँ / जगजीवन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगजीवन }} Category:पद <poeM>पावक सर्व अंग काठहिं माँ, मिल...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:20, 6 अगस्त 2009 का अवतरण
पावक सर्व अंग काठहिं माँ, मिलिकै करखि जगावा।
ह्वैगै खाक तेज ताही तैं, फिर धौं कहाँ समावा॥
भान समान कूप जब छाया, दृष्टि सबहि माँ लावा।
परि घन कर्म आनि अंतर महँ, जोति खैंचि ले आवा।
अस है भेद अपार अंत नहिं, सतगुरु आनि बतावा।
'जगजीवन जस बूझि सूझि भै, तेहि तस भाखि जनावा॥