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"हम कृती नहीं हैं / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्। | ||
+ | क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब | ||
+ | इस विलास का योग मिला ?—जो | ||
+ | हों, इतने भर को ही | ||
+ | भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ? | ||
+ | हम हुए, यही बस, | ||
+ | नामहीन हम, निर्विशेष्य, | ||
+ | कुछ हमने किया नहीं। | ||
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+ | मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः | ||
+ | नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः | ||
+ | उस से फूटा जो आलोक, उसे | ||
+ | --छितरा जाने से पहले— | ||
+ | निर्निमेष आँखों से देखा | ||
+ | निर्मम मानस से पहचाना | ||
+ | नाम दिया। | ||
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− | + | अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये, | |
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− | + | परिचित को गहरे उकेरते | |
− | + | संवेदना का प्याला टूट जायः | |
− | नाम दिया। | + | देखा |
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+ | नाम दिया। | ||
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19:27, 6 अगस्त 2009 का अवतरण
हम कृति नहीं हैं
कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।
क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब
इस विलास का योग मिला ?—जो
हों, इतने भर को ही
भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ?
हम हुए, यही बस,
नामहीन हम, निर्विशेष्य,
कुछ हमने किया नहीं।
या केवल
मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः
नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः
उस से फूटा जो आलोक, उसे
--छितरा जाने से पहले—
निर्निमेष आँखों से देखा
निर्मम मानस से पहचाना
नाम दिया।
चाहे
तकने में आँखें फूट जायें,
चाहे
अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये,
चाहे
परिचित को गहरे उकेरते
संवेदना का प्याला टूट जायः
देखा
पहचाना
नाम दिया।
कृति नहीं हैः
हों, बस इतने भर को हम
आजीवन तपते-जलते रहे—रह गये।