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10:49, 24 सितम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: नईम
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क्या कहेंगे लोग¸
कहने को बचा ही क्या?
यदि नहीं हमने¸
तो उनने भी रचा ही क्या?
उंगलियां हम पर उठाये–कहें तो कहते रहें वे¸
फिर भले ही पड़ौसों में रहें तो रहते रहे वे।
परखने में आज तक¸
उनको जंचा ही क्या?
हैं कि जब मुंह में जुबानें¸ चलेंगी ही।
कड़ाही चूल्हों–चढ़ी कुछ तलेंगी ही।
मुद्दतों से पेट में–
उनके पचा ही क्या?
कहीं हल्दी¸ कहीं चंदन¸ कहीं कालिख¸
उतारू हैं ठोकने को दोस्त दुश्मन सभी नालिश
इशारों पर आज तक
अपने नचा ही क्या?