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11:00, 24 सितम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: नईम
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हो न सके हम
छोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा
हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा
गर्मी या बारिश का हिस्सा
हुआ न मनुवां
किसी गौर की महफिल का गायक साज़िंदा¸
अपने ही मौरूसी घर का
रहा हमेशा से कारिंदा
दास्तान हो सके न रोचक
याकि लोक में प्रचलित किस्सा
जीवन जीने की कोशिश में
लगा रहा मैं भूखा–प्यासा
होना था कविता सा¸ लेकिन
हो न सका मैं ढंग की भाषा
जनम जनम से
होता आया
इन–उन की ख्वाहिश का हिस्सा
जीवन बांध नहीं पाये हम
मंसूबे ही रहे बांधते¸
खुलकर खेल न पाये बचपन
यूं ही खिचड़ी रहे रांधते
हो न सके
जीवन जीने की
हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा