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"सदस्य वार्ता:Jagadishwar chaturvedi" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य मे...)
 
(मृत्‍यु से मुठभेड़ का कवि‍ टैगौर: नया विभाग)
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     मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्ना परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना । निष्कर्ष आत्मकथा को बंदगली में ले जाते हैं।  
 
     मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्ना परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना । निष्कर्ष आत्मकथा को बंदगली में ले जाते हैं।  
 
     आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा विधा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। कहानी में कुछ चुनते हैं और कुछ छिपाते हैं। क्या बताएं और क्या छिपाएं ? इसका फैसला कैसे करें ? किसी भी चीज को बताने के लिए कहानी का होना बेहद जरूरी है कहानी के बिना कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही वजह है दिनकर भी जब कर्ण पर लिखने गए तो उन्हें कहानी में कहने की कोशिश की है। दिनकर ने लिखा है ''कथाकाव्य का आनंन्द खेतों में देशी पध्दति से जई उपजाने के आनन्द के समान है ; यानी इस पध्दति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है ,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है ,उससे कुछ तन्दुरूस्ती भी बनती है।''
 
     आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा विधा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। कहानी में कुछ चुनते हैं और कुछ छिपाते हैं। क्या बताएं और क्या छिपाएं ? इसका फैसला कैसे करें ? किसी भी चीज को बताने के लिए कहानी का होना बेहद जरूरी है कहानी के बिना कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही वजह है दिनकर भी जब कर्ण पर लिखने गए तो उन्हें कहानी में कहने की कोशिश की है। दिनकर ने लिखा है ''कथाकाव्य का आनंन्द खेतों में देशी पध्दति से जई उपजाने के आनन्द के समान है ; यानी इस पध्दति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है ,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है ,उससे कुछ तन्दुरूस्ती भी बनती है।''
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== मृत्‍यु से मुठभेड़ का कवि‍ टैगौर ==
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        रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के मृत्‍यु दि‍वस पर               
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            रवीन्‍द्रनाथ के मृत्‍यु दि‍वस पर उनके वि‍चारों और नजरि‍ए पर वि‍चार करने का मन अचानक हुआ और पाया कि‍ रवीन्‍द्रनाथ के यहां मृत्‍यु का जि‍तना जि‍क्र है उससे ज्‍यादा जीवन का जि‍क्र है। रवीन्‍द्रनाथ ने अपने लेखन से वि‍श्‍व मानव सभ्‍यता को आलोकि‍त कि‍या है, चारों ओर उनका यश इतने दि‍नों के बाद आज भी बना हुआ है, आज भी बांग्‍ला का कोई भी वि‍मर्श उनके बि‍ना अधूरा है। रवीन्‍द्र की इस वि‍राटता में उनके दृष्‍टि‍कोण की महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी।
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    रवीन्‍द्रनाथ आधुनि‍काल के उन चंद वि‍चारकों और लेखकों में हैं जो मृत्‍यु की सत्‍ता को स्‍वीकारते हैं, उसका व्‍यापक चि‍त्रण भी करते हैं। मृत्‍यु को गीत बनाने में रवीन्‍द्रनाथ ने वि‍लक्षण महारत हासि‍ल की थी। सामान्‍य तौर पर भारतीय मनोवि‍ज्ञान मौत से आंखें चुराता है अथवा उसका बहुत कम वि‍मर्श मि‍लता है। रवीन्‍द्रनाथ ने मौत को स्‍वीकारा और उसे चुनौती भी दी। रवीन्‍द्रनाथ का प्रसि‍द्ध कथन था ,जो उन्‍हें अपनी परंपरा से मि‍ला था, उन्‍होंने लि‍खा ' गृहीत इव केशेषु म़ृत्‍युना धर्म माचरेत्'- अर्थात् मौत ने चोटी पकड़ रखा है यह ध्‍यान में रखते हुए धर्म पर चलो। इसी धारणा के आधार पर उन्‍होंने 'संसार नश्‍वर है', इस‍ प्राचीन धारणा का खंड़न कि‍या था और लि‍खा था ' अवसान के बाद जो मि‍थ्‍या है वह अवसान के पहले वास्‍तव है। जि‍स मात्रा में जो चीज सत्‍य है उस मात्रा में उसे मानना होगा। हम न मानें तो वह चीज ज़बरदस्‍ती अपने-आपको मनवा लेगी और एकदि‍न ब्‍याज सहि‍त हमसे बदला लेगी।'
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      जो है उसे मानो और आगे बढ़ो। यदि‍ प्रस्‍तुत यथार्थ को अस्‍वीकार करते हैं तो यथार्थ मनवाकर छोड़ेगा। आमतौर पर हम सबमें यथार्थ को झुठलाने की आदत होती है अथवा यथार्थ से आंखें चुराते हैं। उन्‍होंने लि‍खा '' वस्‍तु को अपनाना और वस्‍तु को छोड़ देना ,दोनों में ही सत्‍य है। ये दोनों सत्‍य एक-दूसरे पर नि‍र्भर हैं, और दोनों को यथार्थ रूप से मि‍लाकर ही पूर्णता लाभ संभव है।''
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    हि‍न्‍दी में सामंजस्‍य पर खूब बहस हुई है। इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ लि‍खा है '' यदि‍ इस सामंजस्‍य का आश्रय लेना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें देखना होगा मनुष्‍य का सच्‍चा रूप। कि‍सी वि‍शेष प्रयोजन के पक्ष से मनुष्‍य को देखने से काम नहीं चलेगा।'' मनुष्‍य को कि‍सी एक ही प्रयोजन के नजरि‍ए से देखने से वह समझ में नहीं आ सकता। बल्‍कि‍ यह बेकार का नजरि‍या है। रवीन्‍द्रनाथ का मानना था '' यदि‍ हम आम के फल को इस दृष्‍टि‍कोण से देखें कि‍ उससे खटाई कि‍स तरह मि‍ल सकती है तो आम का समग्र रूप हमारे सामने नहीं आता- बल्‍कि‍ हम उसे कच्‍चा ही तोड़कर उसकी गुठली नष्‍ट कर देते हैं। पेड़ को यदि‍ हम केवल ईंधन के रूप में देखें तो उसके फल- फूल-पत्‍तों में हमें कोई तात्‍पर्य नहीं दीख पड़ेगा। इसी तरह यदि‍ मनुष्‍य को हम राज्‍य रक्षा का साधन समझेंगे तो उसे सैनि‍क बना देंगे। यदि‍ व्‍यक्‍ति‍ को जातीय समृद्धि‍ का उपाय-मात्र समझें तो उसे वणि‍क बनाने का प्रयास करेंगे। अपने संस्‍कारों के अनुसार जि‍स गुण को हम सबसे अधि‍क मूल्‍य प्रदान करते हैंउसी के उपकरण के रूप में मनुष्‍य को देखकर उस गुण से सम्‍बन्‍धि‍त प्रयोजन-साधना को ही हम मानव-जीवन की सार्थकता समझने लगते हैं। यह दृष्‍टि‍कोण बि‍लकुल ही बेकार हो,ऐसी बात नहीं। लेकि‍न अंत में इससे सामंजस्‍य नष्‍ट होकर अहि‍त ही हमारे पल्‍ले पड़ता है। जि‍से हम तारा समझकर आकाश में उड़ाते हैं वह कुछ ही देर तक तारे की तरह चमकने के बाद जलकर खाक हो जाता है और जमीन पर आ गि‍रता है।''
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    मनुष्‍य का अर्थ प्रयोजनों से बड़ा है। हम व्‍यर्थ में प्रयोजनों के साथ मनुष्‍य के अर्थ को जोड़ देते हैं। मनुष्‍य के सत्‍य को इनके परे जाकर देखना होगा। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के जमाने में पूंजीवाद अपने यौवन पर था उन्‍होंने पूंजीवाद की बर्बरता और उपभोक्‍ता संस्‍कृति‍ के मानव वि‍रोधी चरि‍त्र को बड़ी बारीकी के साथ पकड़ा था। टैगोर का मानना था '' आज हम बाजार की भीड़ और शोर-गुल में सम्‍मि‍लि‍त हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं। कलह से हमारा सन्‍तुलन जाता रहा है। पदवि‍यों-उपाधि‍यों को लेकर आपस में झगड़ा कर रहे हैं। बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊंचे स्‍वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में हमें संकोच नहीं होता। और मजे की बात तो यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब 'नकल'  है। इसमें सत्‍य की मात्रा नहीं के बराबर है। इसमें शान्ति नहीं,संयम नहीं,गाम्‍भीर्य नहीं, शालीनता नहीं।''
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  रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने सादगी और मानवता पर जोर दिया और ऊपरी आडम्‍बर की जबर्दस्‍त मुखालफत की थी।  भद्रता को वे आंतरि‍क चीज मानते थे, भद्रता कोई बाजार में मि‍लने वाली वस्‍तु नहीं थी जि‍से जाकर खरीद लो और पहनकर भद्र बन जाओ। टैगोर के शब्‍दों में '' आज हमारी भद्रता सस्‍ते कपड़ों से अपमानि‍त होती है,घर में वि‍लायती ढंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है बैंक में हमारे नाम पर जो अंक लि‍खे हैं वे कम हों, तो हमारी भद्रता कलंकि‍त होती है। हम यह भूल बैठे हैं कि‍ ऐसी प्रति‍ष्‍ठा को सि‍र पर ढोकर उसका आदर करना वास्‍तव में लज्‍जा का वि‍षय है। जि‍न बेकार की उत्‍तेजनाओं को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्‍त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।''

00:07, 12 अगस्त 2009 का अवतरण

       राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष- 
 
         जगदीश्‍वर चतुर्वेदी: अस्मिता और आत्मकथा की चुनौतियां 
                                                         
       लेखक के विजन का उसके सामयिक सरोकारों के साथ गहरा संबंध होता है। इन दिनों लेखक के बारे में जितनी भी बातें हो रही हैं वे लेखक के दार्शनिक सैध्दान्तिक नजरिए को दरकिनार करके हो रही हैं। लेखक के बारे में हम हल्के -फुलके ढ़ंग या चलताऊ ढ़ंग से सोचा जा रहा है। साहित्य और जीवन से जुड़े गंभीर सवालों से किनाराकशी चल रही है। आज हम लेखक के विजन की बातें नहीं कर रहे बल्कि हल्की-फुल्की चुटकियों के जरिए बहस कर रहे हैं। किसी भी लेखक को पढ़ने का सबसे सटीक प्रस्थान बिंदु है उसका विजन। विजन पर बातें करने का अर्थ है उसके दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल होना। बगैर दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल हुए किसी भी कवि की कविता या साहित्य को विश्लेषित करना संभव नहीं है। 
    सवाल उठता है रचना का लेखक कौन है ? अमूमन रचना व्यक्तिगत प्रयास के रूप में जानी जाती थी आज रचना का लेखक व्यक्ति नहीं है। बल्कि रचना सामूहिक सृजन की देन है। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है आज के युग में लेखन व्यक्तिगत की बजाय सामूहिक अथवा सहयोगी होगा। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है ,काव्य प्रस्तुति नयी है। 'रश्मिरथी' में कर्ण का चित्रण टाइप पात्र के रूप में हुआ है। यह पात्र हमारे मन में रमा हुआ है। टाइप पात्र के बहाने कर्ण हमारे मन की तहों को खोलता है। 
   टाइप पात्र होने के कारण कर्ण ने 'अस्मिता' के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त किया है। 'अस्मिता' में प्रतिस्पर्धा,उत्तेजना और त्रासदी भाव प्रमुख रूप से होता है। अस्मिता की धुरी है 'अन्याय'। अस्मिता विमर्श अन्याय के सवालों को केन्द्र में लाता है। अस्मिता अमूमन संवेदनात्मक उत्तेजना से ऊर्जा ग्रहण करती है। भाषा उसका सेतु है। अस्मिता विमर्श में उत्तेजक भाषा प्रमुख उपकरण है। यही वजह है कि 'रश्मिरथी' में वीरत्व व्यंजक भाषिक संरचना का इस्तेमाल किया गया है। अस्मिता की भाषा 'व्यक्तिगत आत्महीनता' को  बार-बार व्यक्त करती है। कर्ण की भाषा में इसे सहज ही देखा जा सकता है। 
    'रश्मिरथी' के कुछ बुनियादी तत्व हैं जो उभरते हैं पहला है अस्मिता हमेशा प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी होती है। दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सामयिक फ्रेमवर्क । पांचवा , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ संबंध । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है। 
   अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है ' इच्छर्ापूत्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक होता है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देता है। पात्र क्या चाहते हैं यही इसके आख्यान की धुरी है। लेखक ने 'रश्मिरथी' में व्यक्तिगत इच्छाओं को ऐतिहासिक- राजनीतिक संरचनाओं के फ्रेमवर्क में रखकर पेश किया है। पात्र क्या चाहते हैं ? यही प्रधान बिंदु है जिसके इर्दगिर्द सारा कथानक घूमता है। 
    कर्ण के बहाने लेखक यह रेखांकित करना चाहता है कि किसी भी पात्र की अस्मिता एक नहीं होती बल्कि उसके व्यक्तित्व में एकाधिक अस्मिताएं होती हैं, अस्मिता वस्तुत: मुखौटा है। जिन्हें पात्र या व्यक्ति धारण किए रहता है। दूसरा संदेश है  अस्मिता कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है। अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता। मुखौटे खोखले होते हैं,मनुष्य सारवान है। कर्ण के जितने भी मुखौटे हैं वे अप्रासंगिक हैं कर्ण की मानवीयता महान् है। 
     अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु । अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ जंग में सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है ? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं। कर्ण के बहाने लेखक ने अपने कार्यकत्तर्ाा भाव का परिचय दिया है। वह पाठकों को सक्रिय करना चाहता है। इसी अर्थ में 'रश्मिरथी' राजनीतिक कार्रवाई है। लेखक बताना चाहता है अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है। 
     अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है। साथ ही अस्मिता हमेशा विकल्प को व्यक्त करती है। 'रश्मिरथी' में भी अस्मिता के विकल्प की तलाश की गयी है। जाति के इतिहास और विकल्प को बड़ी ही सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है। कर्ण की पहचान का आधार है जाति संबंध। इसकी परिणति है कर्ण की अपमानभरी त्रासद जिंदगी। लेखक का मुख्य लक्ष्य है कर्ण,अर्जुन आदि पात्रों की अस्मिता की निरर्थकता को उद्धाटित करना। अस्मिता की पर्तों को खोलते-खोलते कर्ण को सामान्य मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में लेखक को सफलता मिली है। 
    कर्ण सभ्य है। स्त्री  और मित्रता का सम्मान करता है। संवेदनशील और उदार है। कर्ण के मानवता, दानवीरता, उदारता, मित्रता, संवेदनशीलता आदि गुणों की आज भी महत्ता है। कर्ण के अनुभव अन्य पात्रों के अनुभवों से भिन्ना हैं। पात्रों में अनुभवों की भिन्नाता स्वाभाविक चीज है। अस्वाभाविक है इस भिन्नाता को छिपाना। जाति,धर्म,वैभव आदि को लेकर कर्ण की भिन्ना राय है। वह परंपरागत सामाजिकता का निषेध करता है। वह अस्मिता संघर्ष के जरिए एक ओर अपनी पहचान बदलता है दूसरी ओर अपनी आर्थिक अवस्था का अतिक्रमण करता है। कर्ण क्रमश:अवैध संतान ,सूतपुत्र,वीर,राजा, कौरव सेनापति बना। कर्ण स्वनिर्मित ,आत्मनिर्भर या सेल्फमेड है। 
        कर्ण मर्द है। वीरता पर गर्वित है। पुरूषार्थ उसकी संपदा है। पुरूषार्थ के बल पर भाग्य पर विजय हासिल करता है। पुरूष पात्र पुरूषार्थ जरिए भाग्य को पछाड़ते हैं। इसके विपरीत दिनकर ने कुंती के बहाने औरत की नियति का चित्रण किया है। स्त्री का अपने भवितव्य पर नियंत्रण नहीं होता फलत: वह अपनी कहानी सेंसर करती है। वीरता के कारण कर्ण भाषा ,संस्कृति और जाति की सीमाओं का अतिक्रमण करता है। कर्ण के पक्षधर और विरोधी दोनों में उसकी वीरता निर्विवाद है। वह कौरवों को एकजुट रखने में सफल रहता है। वीरता के कारण कर्ण को महाभारत के अद्वितीय चरित्रों की कोटि में रखा जाता है। दुर्योधन का पांडवों के साथ युध्द का फैसला बहुत कुछ कण्र् ा के ऊपर ही निर्भर था। महाभारत को अर्थपूर्ण बनाने में कर्ण की निर्णायक भूमिका है। कर्ण की सृष्टि के बिना महाभारत लिखा ही नहीं जाता। महाभारत में वीरों के वैभव का जो विराट रूप सामने आता है उसकी धुरी है कर्ण। कर्ण महाभारत के कथानक को बांधने वाला महत्वपूर्ण ,निर्णायक और विवादास्पद पात्र है। महाभारत में दो पात्र हैं जो अस्मिता विमर्श के स्रोत हैं पहला ,द्रौपदी और दूसरा कर्ण। दोनों ही पितृसत्ता के लिए चुनौती हैं।
          कर्ण पितृसत्ता को चुनौती देता है। पितृसत्ता के सांस्थानिक रूप जाति व्यवस्था की अमानवीयता को उद्धाटित करता है। दलित,राजा,मर्द,वीर आदि सब रूपों का अतिक्रमण करते हुए 'मित्रता' 'आत्मनिर्भरता' और 'प्रेम' के प्रतीक रूप में सामने आता है। किसी को कर्ण का जाति विमर्श अपील करता है,किसी को वीरता, उदारता,मित्रता और वचनबध्दता अपील करती है। कर्ण उन वर्गों और सामाजिक समूहों को प्रभावित करते हैं जो अपना रूपान्तरण करना चाहते हैं। जो प्रतिवादी भावना के साथ सामाजिक विकास करना चाहते हैं। कर्ण की सबसे ज्यादा अपील वंचितों और दलितों में है। सबसे ज्यादा अपील उनमें है जो वर्ग अपनी पहचान अथवा अस्मिता की तलाश में हैं। अस्मिता के प्रचलित मानकों का कर्ण अनुकरण नहीं करता। अस्मिता मानकों में निहित खोखलेपन को सामने लाता है। 
    जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं। कर्ण का संघर्ष मुखौटों के खिलाफ है। वह मुखौटे उतार फेंकता है। अस्मिता के मुखौटों में कर्ण का दम घुटता है। अस्मिता के मुखौटों को नष्ट करने के साथ कर्ण का उदारमना मानवीय मन सामने आता है। कर्ण की खूबी है दूसरों के प्रति त्याग भावना। 'रश्मिरथी' में जिस युध्द का वर्णन है यह मूलत: अस्मिता युध्द है। यह अस्मिता संघर्ष में निहित आत्मघाती भावबोध की भी अभिव्यक्ति है। अस्मिता आमतौर पर स्वयं को नष्ट करती है। वह 'स्व' को नष्ट करती है। 
        'रश्मिरथी' कर्ण की आत्मकथा है। आत्मकथा में आत्म-स्वीकृति,आत्म-उद्धाटन और शिरकत का तत्व रहता है। आत्मकथा में वे चीजें बतायी जाती हैं जिन्हें लोग नहीं जानते। जो जानते हैं उसे आत्मकथा में नहीं चाहते। आत्मकथा के छह मूल तत्व हैं। इन तत्वों के आधार पर 'रश्मिरथी' का समग्र ताना-बाना टिका है। 
   आत्मकथा का पहला तत्व है व्यक्तिगत अस्मिता और निर्वैयक्तिकता। कर्ण की कहानी व्यक्तिगत है,  प्रस्तुति निर्वैयक्तिक है। कर्ण की निर्वैयक्तिक छवि निर्मित करने में भाषा प्रमुख कारक है। भाषा के जरिए कर्ण के प्रति ज्ञान में इजाफा होता है। रश्मिरथी' में कविता और कहानी दोनों के मिश्रित प्रयोग मिलते हैं। कर्ण की कथा और कविता मिलकर अस्मिता का बोध निर्मित करती है।  अस्मिता एक नहीं अनेकरूपा है। सर्जनात्मक संभावनाओं से भरी है। कर्ण की आत्मनिष्ठ छवि के सामाजिक आयाम पर जोर देने में लेखक को सफलता मिली है। दूसरी महत्वपूर्ण यह है कि अस्मिता का शरीर के साथ गहरा संबंध है। कर्ण के कवच-कुंडल और कर्ण के शरीर का अंत ,'रश्मिरथी' को उत्तर आधुनिक अस्मिता विमर्श में ले जाता है। टेरी इगिलटन के अनुसार 'उत्तर आधुनिक व्यक्ति की अस्मिता के साथ उसका शरीर अन्तर्ग्रथित है।' 
       आत्मकथा का दूसरा तत्व है उपस्थिति,वर्तमान और प्रस्तुति। रोलां बार्थ के शब्दों में आत्मकथा को उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होना चाहिए। 'रश्मिरथी' में कर्ण की आत्मकथा विभिन्ना चरित्रों के माध्यम से सामने आती है। आत्मकथा लिखते समय चिर-परिचित क्षेत्र हमेशा परेशान करते हैं। चिर-परिचित वातावरण समस्या पैदा करता है। चिर-परिचित यथार्थ है भारत की जाति समस्या। जाति समस्या लेखक को परेशान और उत्तेजित दोनों ही करती है। जातिप्रथा को करीब से जानने के कारण लेखक को इसके बारे में सटीक वर्णन ,विवरण और ब्यौरे तैयार करने में मदद मिली है। लेखक को जातिप्रथा की अनेक 'दरारें' नजर आती हैं। आत्मकथा में 'दरारों' की केन्द्रीय भूमिका होती है। 'दरारें' पुराने व्यक्तित्व की जगह नए व्यक्तित्व को सामने लाने का काम करती हैं।  कर्ण की जाति पीड़ा जितनी बार व्यक्त हुई है उतनी ही बार कर्ण का नया रूप सामने आया है। पुराना कर्ण बदला है। लेखक कहीं पर भी कण्र् ा के पुराने रूप को स्थापित करने का प्रयास नहीं करता। हमेशा नए रूप को सामने लाता है। कर्ण पुराने रूप के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय 'दरारों' और 'अंतरालों' के बीच में से नए रूप में सामने आता है। रोलां बार्थ ने आत्मकथा के बारे में लिखा है आत्मकथा में आप स्वयं को नहीं देखते बल्कि इमेज को देखते हैं। अपनी आंखों को नहीं देखते। आत्मकथा लेखन हमेशा विचलनभरा होता है। विचलन के ऊबड़ खाबड़ पैरामीटर सर्किल बनाते हैं। इन रास्तों से गुजरने के बाद एक ही संदेश संप्रेषित होता है कि जिंदगी अर्थपूर्ण है। आत्मकथा का केन्द्र बिंदु कौन सा है ? यह खोजने की जरूरत है। 
      आत्मकथा में विश्वास सबसे बड़ी चीज है। आस्था के साथ लिखी आत्मकथा इमेज बनाती है। आत्मकथा में चित्रण के लिए चित्रण नहीं होता बल्कि प्रस्तुति पर जोर रहता है। आत्मकथा चिर-परिचित यथार्थ की प्रस्तुति होती है। प्रस्तुति में अंतराल ज्यादा साफ नजर आते हैं। क्योंकि आत्मकथा में समग्रता के तत्व का पालन नहीं होता। 
     आत्मकथा में न्यूनतम अनुकरण, उद्धाटन ,विवरण और आख्यान होता है। आत्मकथा में नामों का जिक्र और नामों के साथ जुड़े अनुभवों का वर्णन होता है। फलत: आत्मकथा के दायरे में अनेक मील के पत्थर और पैरामीटर होते है। आत्मकथा के रूप में यदि 'रश्मिरथी' को देखा जाए तो पाएंगे कि वहां भाषा ही आत्मकथा है। भाषा का संसार ही है जिसके कारण यह कृति अपील करती है। भाषा के माध्यम से ही कर्ण की विभिन्ना पर्तों को लेखक ने खोला है। 
     आत्मकथा में भाषा बहुत बड़ा आधार है। आत्मकथा की भाषा में प्रस्तुति 'मैं' के अंत की घोषणा है। मैं संकेत मात्र होकर रह जाता है। भाषा सामूहिक प्रयासों से बनती है। आत्मकथा के 'मैं' का राजनीतिक - दार्शनिक चीजों में लोप हो जाता है। भाषाविज्ञान में लोप हो जाता है। आत्मकथा में  मैं हमेशा घुला मिला होता है। आत्मकथा में जैसे 'तुम','वह','हम' होते हैं वैसे ही 'मैं' भी होता है। आत्मकथा में  सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों एक हो जाते हैं।  वक्ता और विषय एक हो जाते हैं। 
  आत्मकथा का तीसरा प्रमुख तत्व है सुसंगत अनुभूति। दिनकर ने कर्ण के चरित्र को सामने लाकर पात्र के जीवन के तथ्यों को सीधे बगैर किसी लाग-लपेट के पेश किया है। आत्मकथा में तथ्यों को बगैर चासनी के पेश किया है। बगैर किसी कृत्रिमता के पेश किया है। तथ्यों को अकृत्रिम भाव से पेश करना आत्मकथा का उत्तर आधुनिक फिनोमिना है। उत्तर आधुनिक आत्मकथा में अनिश्चितता,विचलन आदि को सहज ही देख सकते हैं। इसमें भाषा और विमर्श प्रभावशाली होते हैं। 
     साहित्य में सत्य नहीं 'फिक्शन' होता है। साहित्य सत्य नहीं गल्प है। सत्य का आख्यान कभी गल्प के बिना नहीं बनता। 'रश्मिरथी' गल्प है। आत्मकथा में जीवन सुंदर और साफसुथरा दिखता है वास्तव में वैसा नहीं होता। बल्कि बेहद जटिल और उलझनों से भरा होता है। आत्मकथा में जीवन का जो पैटर्न और संतुलन नजर आता है वह जीवन में नहीं होता। आत्मकथा हमेशा उन अनुभवों का प्रतिवाद करती है जो हमारे इर्द-गिर्द होते हैं। अनुभवों के जरिए जीवन के सवाल  उठाए जाते हैं। उन चीजों को शक्ल प्रदान की जाती है जिनकी कोई पहचान नहीं है। जो शक्लविहीन हैं। संवेदनात्मक तौर पर जिन्हें हम महसूस नहीं करते उन चीजों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की जाती है। 
     उपन्यास,कविता ,कहानी आदि सर्जनात्मक विधारूप में जब आत्मकथा लिखी जाती है तो उसमें कल्पनाशीलता की बड़ी भूमिका होती है। कहानी,आत्मकथा,काव्य,सैध्दान्तिकी,वादविवाद आदि सबको 'इच्छा' में शरण लेनी होती है। अनुभव,संवेदना और शिक्षा को रूपान्तरित करने के लिए कल्पना का सहारा लिया जाता है। कल्पना में तयशुदा सीमाओं का अतिक्रमण होता है। आत्मकथा में संस्मरण के दाखिल होते ही कहानी तेजी से बदलती है। कर्ण के साथ कुंती और कृष्ण की मुलाकात कहानी को बुनियादी तौर पर बदल देती है। राजसभा में जब कर्ण के पिता और जाति का नाम पूछा जाता है तो कहानी में बदलाव आता है। कहानी शैली भी बदल जाती है। संस्मरणों के जरिए कहानी में आए बदलाव इस बात का संकेत हैं लेखक सांस्कृतिक बाधाओं अथवा सांस्कृतिक टेबुओं का अतिक्रमण करना चाहता है।
    कहानी की सीधे और प्रामाणिक प्रस्तुति का अर्थ है संबंधित व्यक्ति ने अपनी निजी अनुभूति को विकसित कर लिया है। निजी अनुभूति के आधार पर सांस्कृतिक संदेहों का अतिक्रमण करता है। दिनकर ने 'रश्मिरथी' में  जातिप्रथा संबंधी निजी अनुभूतियों के आधार पर कर्ण के जीवन में व्याप्त 'अन्याय' को उद्धाटित किया है। इसके ही आधार पर विमर्श की संरचनाओं और कर्ण की अस्मिता का निर्माण किया है।  कहने का तात्पर्य यह कि अनुभूति,विमर्श संरचनाएं और अस्मिता के अन्तस्संबंध के आधार पर ही हमारी समझ,व्याख्या,प्रतिक्रिया,विचार आदि बनते हैं। समाज प्रदत्त विमर्श शैली और फ्रेम द्वारा अस्मिता निर्मित होती है और यह उसकी सीमा भी है। 
     दूसरी ओर लेखक कुछ चीजों को विमर्श में शामिल नहीं करता। उन पर पाबंदी लगाता है। आत्मकथा में सुचिंतित और सुनियोजित भाव से विमर्शों को चुनौती दी जाती है। फलत: आत्मकथा जोखिमभरा लेखन है। आत्मकथा में लेखक जो जोखिम उठाता है उसमें वह आंतरिक सांस्कृतिक कोड का उद्धाटन करता है। ये सांस्कृतिक कोड जीवनानुभवों को देखने में मदद करते हैं। 'रश्मिरथी' की विषयवस्तु महाकाव्य की कहानी है। उसे काव्य 'पाठ' के रूप में रूपान्तरित करके नए किस्म के विधा विमर्श को प्रस्तुत किया है। 
    दिनकर ने 'रश्मिरथी' में कर्ण की कहानी को व्यापक जाति विमर्श के कैनवास पर रखा है। सामाजिक भेद के व्यापक फलक पर कर्ण के चरित्र का विकास करने के कारण ही हमें पता चलता है कि जाति को लोग कैसे देख रहे हैं और किस तरह देखना चाहिए। साथ ही यह भी सीखने की जरूरत है कि आत्मकथा में निजी अनुभूतियों को कैसे व्यक्त करें। दिनकर ने बताया है कि कर्ण कैसा था, कर्ण की मूल समस्या क्या है, कर्ण से जुड़ा मूल विमर्श या विवाद क्या है, उसे किस तरह देखें। कर्ण के कथानक के सबक क्या हैं और इस समूचे कथानक का हमारे सांस्कृतिक मानकों और सामाजिक कोड्स से क्या संबंध है और इनको कैसे बदलें ? 
    'रश्मिरथी' के प्रसंग में कहानी और अनुभव के अन्तस्संबंध के बारे में भी सवाल उठता है। कहानी में चीजें तय होती हैं। शक्ल,रूपरेखा और सीमा तय है। जबकि अनुभव अचानक व्यक्त होता है और दिख रही चीजों और तदनुरूप अनुभवों में घुलमिल जाता है। कहानी को हमेशा सरल ,विस्तृत विवरणों और भावनाओं के ज्वार से मुक्त होना चाहिए। कहानी में पैटर्न,प्लाट और अर्थ होता है। फलत: हम कहानी में प्रासंगिक अर्थ खोजते हैं। प्रासंगिक अर्थ के बिना कहानी लिखना संभव नहीं है। प्रत्येक कहानी में रूपान्तरण होता है। प्रत्येक कहानी परिवर्तन और विनिमय करती है। चयन और चुनाव करती है। आत्मकथा में अतीत का सृजन नहीं होता बल्कि आत्म या स्वानुभूतियों का सृजन होता है। अतीत के अनुभवों को नए तरीके से व्यक्त किया जाता है। 
   आत्मकथा का चौथा तत्व है संप्रेषण और सामूहिकता। लेखक का स्व किसी शून्य में निवास नहीं करता। आत्मकथा लिखते समय अन्य को तबाह करना, अन्य के नजरिए को तबाह करना लक्ष्य नहीं होता। जैसाकि इन दिनों अनेक लेखिकाओं की आत्मकथा में देखने को मिलता है। आत्मकथा का लक्ष्य अन्य को तबाह करके अपना स्थान बनाना नहीं है। विद्वतापूर्ण लेखन में अन्य के प्रति ज्यादा मानवीयता और सम्मान का भाव होता है। मैंने अनेक लेखकों की रचनाएं पढ़ी हैं उनसे असहमत भी रहा हूँ। किंतु उनसे एक बात जरूर सीखी है कि हमें दूसरों की बात सम्मान के साथ सुननी चाहिए। लेखन सिर्फ संप्रेषण नहीं है बल्कि सामूहिकता का एक रूप भी है। यही वह जगह है जहां आप अन्य लेखकों को अपने पास पाते हैं। किसी भी लेखक के लेखन को खारिज करने के भाव से नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि स्वीकारने और गहरी जिज्ञासा के साथ पढ़ा जाना चाहिए। जिससे संवाद किया जा सके। लेखन कभी भी स्वयं के लिए नहीं होता अन्य के लिए होता है। दूसरों के लिए होता है। इसी अर्थ में लेखन सामूहिकता बोध पैदा करता है। सामूहिकता को अभिव्यक्त करता है। लेखन कहने के लिए 'स्व' से आरंभ होता है किंतु 'स्व' के लिए नहीं होता। सबके लिए होता है। 
     आत्मकथा को 'आत्म' या 'निज' को हीन या महान बनाने या सहानुभूति जुटाने के औजार के तौर पर नहीं लिखा जाता। आत्मकथा आत्माभिव्यंजना की खोज है। यह उनके साथ संवाद है जो अन्य की बात सुनने के लिए सहमत हैं । प्रतिक्रिया व्यक्त करने को तैयार हैं। अपनी आत्मकथा खोज रहे हैं। 
     आत्म को व्यक्त करते समय व्यक्ति 'स्व' में कैद नहीं रहता। बल्कि अपने अलगाव और अज्ञान को दूर करने में आत्म की मदद लेता है। आत्मकथा का मकसद आत्म सत्य को बताना नहीं है। उसका मकसद है आत्मसत्य का खंडन करना। आत्म की बंद गलियों के बाहर आना और उन तमाम चीजों का खंडन करना जिनसे आत्म भिन्ना नजर आता है। 
     प्रत्येक कहानी में जाति गुण होते हैं। इनके बिना कहानी लिखी नहीं जाती। अथवा शुध्द कहानी जैसी कोई चीज नहीं होती। कहानी हमेशा अर्थ से संचालित होती है। अर्थ के बिना कहानी नहीं होती। अर्थहीन कहानी महज घटनाक्रम है। कहानी में चार चीजें प्रमुख हैं: पहला है ,कहानीपन। दूसरा, कैसे व्यक्त करते हैं। तीसरा ,क्या शिक्षा देते हैं। चौथा कैसे आनंद प्राप्त करते हैं। ये चीजें अलग भी हो सकती हैं और किसी कहानी में एक साथ भी हो सकती हैं। कहानी में ऐसे बिंदु भी आते हैं जहां तथ्य और अनुभूति का मिलन होता है। आत्मकथा निश्चित रूप से व्यक्ति का आख्यान है,यह पेशेवर आत्मस्वीकृति है। यह मनुष्य की आत्मस्वीकृति है जो कि हमेशा संप्रेषण और सामूहिकता की प्रक्रियाओं में रहता है।
  आत्मकथा का पांचवां तत्व है छवि,काल्पनिक छवि और कल्पना। वाल्टर वूगीमैन के अनुसार  वैध ज्ञान की पध्दति कल्पना का अंत है। कहानी में शब्द,भाषा और भाषण चेतना निर्मित करते हैं। यथार्थ परिभाषित करते हैं। कल्पना के जरिए रूढिबध्दता से अपने को मुक्त करते हैं। अन्य किस्म का व्यक्तित्व निर्मित करते हैं। कल्पना के जरिए ही सामाजिक-साहित्यिक रूढियों को खारिज करने में मदद मिलती है। मनुष्य का रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण सामंजस्य बिठाकर नहीं होता। कर्ण क्या है और कर्ण की क्या छवि बन रही है इसकी प्रस्तुति के दौरान दिनकर ने कर्ण को कहीं से भी रूढिबध्द रूप में चित्रित नहीं किया है। कर्ण को चित्रित करते हुए पूर्ण स्वतंत्रता और कल्पना का इस्तेमाल किया है। स्वतंत्रता और कल्पना के प्रयोग के कारण ही आत्मकथा ऊर्जा से भरी होती है। पढ़ने वालों के मन में ऊर्जा का संचार करती है। साहस और आस्था के साथ जोखिम उठाने की प्रेरणा देती है। 
   आत्मकथा का छठा तत्व है विमर्श,उद्धाटन और समापन। आत्मकथा में आत्म को उद्धाटित करने के लिए साहस की जरूरत होती है। अनेक लेखकों में साहस का अभाव होता है। आत्मविश्वास और साहस के बिना आत्मकथा लिखना संभव नहीं है। जो लेखन में जोखिम उठाते हैं और अपनी बात कहते हैं। वे  अपना बोझ हलका करते हैं साथ ही समाज को भी खुली हवा में सांस लेने का मौका देते हैं।

आत्म के बहाने लेखक लंबे समय से बंद कमरों को खोलता है। आत्मकथा में उद्धाटित करते समय लेखक डरता है, डरता है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ ? अन्य के सामने नंगे खड़े होने का डर रहता है। यह शर्म और डर कहां से आता है ? असल में जो बौनेपन के शिकार होते हैं वे शर्माते हैं, डरते हैं। औसत बुध्दि के लेखक शर्माते और डरते हैं। इनमें से ज्यादातर रूढियों में जीते और तयशुदा मार्ग पर चलते हैं। 'क्लीचे' में जीते और बातें करते हैं।

    मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्ना परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना । निष्कर्ष आत्मकथा को बंदगली में ले जाते हैं। 
    आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा विधा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। कहानी में कुछ चुनते हैं और कुछ छिपाते हैं। क्या बताएं और क्या छिपाएं ? इसका फैसला कैसे करें ? किसी भी चीज को बताने के लिए कहानी का होना बेहद जरूरी है कहानी के बिना कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही वजह है दिनकर भी जब कर्ण पर लिखने गए तो उन्हें कहानी में कहने की कोशिश की है। दिनकर ने लिखा है कथाकाव्य का आनंन्द खेतों में देशी पध्दति से जई उपजाने के आनन्द के समान है ; यानी इस पध्दति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है ,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है ,उससे कुछ तन्दुरूस्ती भी बनती है।

मृत्‍यु से मुठभेड़ का कवि‍ टैगौर

       रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के मृत्‍यु दि‍वस पर                
           रवीन्‍द्रनाथ के मृत्‍यु दि‍वस पर उनके वि‍चारों और नजरि‍ए पर वि‍चार करने का मन अचानक हुआ और पाया कि‍ रवीन्‍द्रनाथ के यहां मृत्‍यु का जि‍तना जि‍क्र है उससे ज्‍यादा जीवन का जि‍क्र है। रवीन्‍द्रनाथ ने अपने लेखन से वि‍श्‍व मानव सभ्‍यता को आलोकि‍त कि‍या है, चारों ओर उनका यश इतने दि‍नों के बाद आज भी बना हुआ है, आज भी बांग्‍ला का कोई भी वि‍मर्श उनके बि‍ना अधूरा है। रवीन्‍द्र की इस वि‍राटता में उनके दृष्‍टि‍कोण की महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी। 
    रवीन्‍द्रनाथ आधुनि‍काल के उन चंद वि‍चारकों और लेखकों में हैं जो मृत्‍यु की सत्‍ता को स्‍वीकारते हैं, उसका व्‍यापक चि‍त्रण भी करते हैं। मृत्‍यु को गीत बनाने में रवीन्‍द्रनाथ ने वि‍लक्षण महारत हासि‍ल की थी। सामान्‍य तौर पर भारतीय मनोवि‍ज्ञान मौत से आंखें चुराता है अथवा उसका बहुत कम वि‍मर्श मि‍लता है। रवीन्‍द्रनाथ ने मौत को स्‍वीकारा और उसे चुनौती भी दी। रवीन्‍द्रनाथ का प्रसि‍द्ध कथन था ,जो उन्‍हें अपनी परंपरा से मि‍ला था, उन्‍होंने लि‍खा ' गृहीत इव केशेषु म़ृत्‍युना धर्म माचरेत्'- अर्थात् मौत ने चोटी पकड़ रखा है यह ध्‍यान में रखते हुए धर्म पर चलो। इसी धारणा के आधार पर उन्‍होंने 'संसार नश्‍वर है', इस‍ प्राचीन धारणा का खंड़न कि‍या था और लि‍खा था ' अवसान के बाद जो मि‍थ्‍या है वह अवसान के पहले वास्‍तव है। जि‍स मात्रा में जो चीज सत्‍य है उस मात्रा में उसे मानना होगा। हम न मानें तो वह चीज ज़बरदस्‍ती अपने-आपको मनवा लेगी और एकदि‍न ब्‍याज सहि‍त हमसे बदला लेगी।' 
      जो है उसे मानो और आगे बढ़ो। यदि‍ प्रस्‍तुत यथार्थ को अस्‍वीकार करते हैं तो यथार्थ मनवाकर छोड़ेगा। आमतौर पर हम सबमें यथार्थ को झुठलाने की आदत होती है अथवा यथार्थ से आंखें चुराते हैं। उन्‍होंने लि‍खा  वस्‍तु को अपनाना और वस्‍तु को छोड़ देना ,दोनों में ही सत्‍य है। ये दोनों सत्‍य एक-दूसरे पर नि‍र्भर हैं, और दोनों को यथार्थ रूप से मि‍लाकर ही पूर्णता लाभ संभव है। 
   हि‍न्‍दी में सामंजस्‍य पर खूब बहस हुई है। इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ लि‍खा है  यदि‍ इस सामंजस्‍य का आश्रय लेना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें देखना होगा मनुष्‍य का सच्‍चा रूप। कि‍सी वि‍शेष प्रयोजन के पक्ष से मनुष्‍य को देखने से काम नहीं चलेगा। मनुष्‍य को कि‍सी एक ही प्रयोजन के नजरि‍ए से देखने से वह समझ में नहीं आ सकता। बल्‍कि‍ यह बेकार का नजरि‍या है। रवीन्‍द्रनाथ का मानना था  यदि‍ हम आम के फल को इस दृष्‍टि‍कोण से देखें कि‍ उससे खटाई कि‍स तरह मि‍ल सकती है तो आम का समग्र रूप हमारे सामने नहीं आता- बल्‍कि‍ हम उसे कच्‍चा ही तोड़कर उसकी गुठली नष्‍ट कर देते हैं। पेड़ को यदि‍ हम केवल ईंधन के रूप में देखें तो उसके फल- फूल-पत्‍तों में हमें कोई तात्‍पर्य नहीं दीख पड़ेगा। इसी तरह यदि‍ मनुष्‍य को हम राज्‍य रक्षा का साधन समझेंगे तो उसे सैनि‍क बना देंगे। यदि‍ व्‍यक्‍ति‍ को जातीय समृद्धि‍ का उपाय-मात्र समझें तो उसे वणि‍क बनाने का प्रयास करेंगे। अपने संस्‍कारों के अनुसार जि‍स गुण को हम सबसे अधि‍क मूल्‍य प्रदान करते हैंउसी के उपकरण के रूप में मनुष्‍य को देखकर उस गुण से सम्‍बन्‍धि‍त प्रयोजन-साधना को ही हम मानव-जीवन की सार्थकता समझने लगते हैं। यह दृष्‍टि‍कोण बि‍लकुल ही बेकार हो,ऐसी बात नहीं। लेकि‍न अंत में इससे सामंजस्‍य नष्‍ट होकर अहि‍त ही हमारे पल्‍ले पड़ता है। जि‍से हम तारा समझकर आकाश में उड़ाते हैं वह कुछ ही देर तक तारे की तरह चमकने के बाद जलकर खाक हो जाता है और जमीन पर आ गि‍रता है। 
    मनुष्‍य का अर्थ प्रयोजनों से बड़ा है। हम व्‍यर्थ में प्रयोजनों के साथ मनुष्‍य के अर्थ को जोड़ देते हैं। मनुष्‍य के सत्‍य को इनके परे जाकर देखना होगा। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के जमाने में पूंजीवाद अपने यौवन पर था उन्‍होंने पूंजीवाद की बर्बरता और उपभोक्‍ता संस्‍कृति‍ के मानव वि‍रोधी चरि‍त्र को बड़ी बारीकी के साथ पकड़ा था। टैगोर का मानना था  आज हम बाजार की भीड़ और शोर-गुल में सम्‍मि‍लि‍त हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं। कलह से हमारा सन्‍तुलन जाता रहा है। पदवि‍यों-उपाधि‍यों को लेकर आपस में झगड़ा कर रहे हैं। बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊंचे स्‍वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में हमें संकोच नहीं होता। और मजे की बात तो यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब 'नकल'  है। इसमें सत्‍य की मात्रा नहीं के बराबर है। इसमें शान्ति नहीं,संयम नहीं,गाम्‍भीर्य नहीं, शालीनता नहीं। 
  रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने सादगी और मानवता पर जोर दिया और ऊपरी आडम्‍बर की जबर्दस्‍त मुखालफत की थी।  भद्रता को वे आंतरि‍क चीज मानते थे, भद्रता कोई बाजार में मि‍लने वाली वस्‍तु नहीं थी जि‍से जाकर खरीद लो और पहनकर भद्र बन जाओ। टैगोर के शब्‍दों में  आज हमारी भद्रता सस्‍ते कपड़ों से अपमानि‍त होती है,घर में वि‍लायती ढंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है बैंक में हमारे नाम पर जो अंक लि‍खे हैं वे कम हों, तो हमारी भद्रता कलंकि‍त होती है। हम यह भूल बैठे हैं कि‍ ऐसी प्रति‍ष्‍ठा को सि‍र पर ढोकर उसका आदर करना वास्‍तव में लज्‍जा का वि‍षय है। जि‍न बेकार की उत्‍तेजनाओं को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्‍त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।