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"लामकाँ है भाषा / नंदकिशोर आचार्य" के अवतरणों में अंतर

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10:01, 13 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

कवि का कोई घर नहीं होता
तलाश ही होती है बस
वह रहता दिखता तो है भाषा में वैसे
पर परिन्दा आकाश में जैसे।

लामकाँ है भाषा
जिसमें नहीं बन सकता मकाँ कवि का
-किसी का भी-
उड़ते ही रहना है उसे
ठहरा कि लो, यह गिरा

कवि इसीलिए घर नहीं
घर के बिम्ब रचता है
जिनमें बसी रहती है
उसकी तमन्ना की बास।