भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आत्मचित्र-1 / नंदकिशोर आचार्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंदकिशोर आचार्य |संग्रह=कवि का कोई घर नहीं होता ...)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
:::तुम्हारे लिए
 
:::तुम्हारे लिए
 
देख लो तुम जिससे
 
देख लो तुम जिससे
अपने को कैसे एखता हूँ मैं।
+
अपने को कैसे देखता हूँ मैं।
  
 
सब से पहले आँखें
 
सब से पहले आँखें

13:23, 16 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

एक आत्मचित्र बनाना है मुझे
तुम्हारे लिए
देख लो तुम जिससे
अपने को कैसे देखता हूँ मैं।

सब से पहले आँखें
-आत्मचित्र, सच पूछो तो, आँखें ही होता है-
जिनसे दुनिया यह
मेरे चित्रों की हो जाती है
पर आँखें बनाऊँ कैसे?
खुली बनाऊंगा
तुम्हारा बिम्ब उनमें उभर आता है
-हर शै में तुम्हीं को खोजती हैं वे

बेहतर है आँखें मुंदी ही रखना
जो न कुछ भी देख पाएंगी
न उनमें ही दिखेगा कुछ।

स्वीकार होगा क्या तुम्हें
वह आत्मचित्र मेरा-
आँखें मेरी मुंद गई हों जिसमें
देखते-देखते तुम को।