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"फिरंगी चले गए / शील" के अवतरणों में अंतर
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करती है दिन को रात सियासत सुदेश की,
बो कर कलह के बीज, फिरंगी चले गए।
भ्रम की भँवर थी, ख़ुश थे, अहिंसा से जय मिली,
दुश्मन बने अजीज़, फिरंगी चले गए।
आते हैं शील ज़लज़ले, ईमान की क़सम,
राहें हुईं ग़लीज़, फिरंगी चले गए।
रहबर ही कर रहे हैं यहाँ, राहज़न के काम,
मांगे मिली तमीज़, फिरंगी चले गए।
हम यौमे-स्वतंत्रता को फ़क़त देखते रहे,
लग़ज़िश लगी लज़ीज़, फिरंगी चले गए।