"मोहभंग / सरोजिनी साहू" के अवतरणों में अंतर
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14:02, 20 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
अब मुझे लौटना होगा उस राह पर,
जिस राह में साल भर हुए, मैं चल रही थी
कई परिचित घर,
कुछ पेड़-पौधे,
न जाने अब अपनी जगह होंगे कि नहीं.
पहले की तरह अब मेरी प्रतीक्षा नहीं रही
आग्रह नहीं रहा
यह कैसी बिडम्बना
कि सिर्फ साल भर में
सिर्फ साल भर एक के साथ परिभ्रमण किया
और थक गयी?
साल भर हुआ,
राह कष्टों से उबरने के लिए
हम साथ-साथ चले,
मैं अपनी कही
और कहानी के राजकुमार की तरह तुम
बिन बातों में सिर हिलाते रहे,
तुम साथ थे, इसलिए रास्ते में मैंने पीली पंछी नहीं देखी
आकाश का इन्द्रधनुष नहीं देखा.
पर राजकुमार की तरह तुम सिर हिलाते गए.
अपनी एक भी न कही.
यह कैसी यात्रा थी?
अंहकार तुम्हारे पाँव की चप्पल,
अंग के कपडे,
आँखों की ऐनक,
कलाई की घडी,
और चहरे का प्रलेप.
अपना अहं तुम्हे हर बार निगलता रहा
उगलता भी हर बार.
हर बार तुम उदास हुए,
और कुछ बोलने के पहले
हर बार पुनर्जन्म लेते रहे.
इतने दिन हम साथ-साथ चले
तुम सिर हिलाते रहे और मैं अपना दुःख बोलती गई.
अगर मुझे मालूम रहता,
तुम्हारे हिलते सिर के पीछे दूसरा कोई छुपा है,
कबसे मैं देखना शुरू कर देती पीली पंछी,
रंग भरे इन्द्रधनुष या कीचड़ सने बच्चे.
तुम एक राह चलते बटोही हो,
ईर्ष्या से सराबोर और लोगों की तरह
तुम भी नाखूनों से खरोंचकर
खून से लथपथ लाशों की सुखद कल्पना से
परे नहीं हो.
मुझे मालूम हुआ, आस्था और विश्वासों का बीमा कर डालने के बाद
मालूम हुआ तुम्हारी जेबों में है,
आगे के शहरों, सरायों और वेश्यालयों के पते.
जानती हूँ मैं,
नजदीक आ रहा है तुम्हारा शहर,
अब तुम खो जाओगे भीड़ में
पर क्या साथ में फिर भी रह जाएगी
रास्ते भर कही हुई मेरी अपनी कहानी?
(अनुवाद: जगदीश महंती)
(प्रस्तुत कविता का अनुवाद साहित्य अमृत के मई २००८ अंक में प्रकाशित)