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"आओ ! / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर

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मुंद गई पलकों में कोई सुबह
 
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ओ मेरी बहार !
 
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तू मुझको समझती है बहुत-बहुत - तू जब
 
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19:57, 21 अगस्त 2009 का अवतरण

1 क्यों यह धुकधुकी, डर, - दर्द की गर्दिश यकायक सॉंस तूफान में गोया। छिपी हुई हाय-हाय में सुकून की तलाश।

बर्फ के गालों में खोया हुआ या ठंडे पसीने में खामोश है शबाब।

तैरती आती है बहार पाल गिराए हुए भीने गुलाब - पीले गुलाब के। तैरती आती है बहार खाब के दरिया में उफक से जहां मौत के रंगीन पहाड हैं।

जाफरान जो हवा में मिला हुआ सांस में भी है। मुंद गई पलकों में कोई सुबह जिसे खून के आसार कहेंगे। - खो दिया है मैंने तुम्हें । 2 कौन उधर है ये जिधर घाट की दीवार ... है ? वह जल में समाती हुयी चली गई है ; लहरों की बूंदों में करोडों किरणों की जिंदगी का नाटक सा : वह मैं तो नहीं हूं। फिर क्योंी मुझे [ अंगों में सिमिट कर अपने ] तुम भूल जाती हो पल में : तुम कि हमेशा होगी मेरे साथ, तुम भूल न जाओ मुझे इस तरह।

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एक गीत मुझे याद है। हर रोम के नन्हे -से कली मुख पर कल सिहरन की कहानी में था ; हर जर्रे में चुम्ब न की चमक की पहचान। पी जाता हूं ऑंसू की कनी-सा वह पल।

ओ मेरी बहार ! तू मुझको समझती है बहुत-बहुत - तू जब यूं ही मुझे बिसरा देती है। खुश हूं कि अकेला हूं, कोई पास नहीं है- बजुज एक सुराही के बजुज एक चटाई के बजुज एक जरा से आकाश के जो मेरा पडोसी है मेरी छत पर बजुज उसके ,जो तुम होतीं - मगर हो फिर भी यहीं कहीं अजब तौर से। तुम आओ, गर आना है मेरे दीदों की वीरानी बसाओ शेर में ही तुमको समाना है अगर जिंदगी में आओ मुजस्सिम... बहरतौर चली आओ यहां और नहीं कोई,कहीं भी तुम्हीं होगी, अगर आओ ; तुम्हीं होगी अगर आओ, बहरतौर चली आओ अगर। [ मैं तो हूं साये में बंधा - सा दामन में तुम्हाहरे ही कहीं, एक गिरह - सा साथ तुम्हाुरे ]

तुम आओ, तो खुद घर मेरा आ जाएगा इस कोनो-मकाँ में, तुम जिसकी हया हो, लय हो।

उस ऐन खामोशी की – हया-भरी इन सिम्तोंश की पहनाइयाँ मुझको पहनाओ ! तुम मुझको इस अंदाज में अपनाओ जिसे दर्द की बेगानारवी कहें, बादल की हँसी कहें, जिसे कोयल की तूफान-भरी सदियों की चीखें, कि जिसे हम-तुम कहें। [ वह गीत तुम्हें भी तो याद होगा ?]