भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कोहरा,शहर और हम / केशव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>तुम मैं शहर औ...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
पद्चाप से | पद्चाप से | ||
चौंककर | चौंककर | ||
− | लिपटता | + | लिपटता हुआ |
गिर्द | गिर्द | ||
ठहरा हुआ | ठहरा हुआ | ||
पंक्ति 33: | पंक्ति 33: | ||
चिंहुककर | चिंहुककर | ||
झाड़ियाँ फुदकते | झाड़ियाँ फुदकते | ||
− | + | सफ़ेद खरगोश की तरह | |
− | रह | + | रह गए |
एक दूसरे पर झुके | एक दूसरे पर झुके | ||
सोये हुए-से | सोये हुए-से | ||
चलते | चलते | ||
तुम और मैं | तुम और मैं | ||
− | या कोहरे में | + | या कोहरे में मुंदा |
शहर | शहर | ||
दूर | दूर | ||
दूर कहीं | दूर कहीं | ||
− | + | ऊंघता हुआ | |
किसी सपने में | किसी सपने में | ||
बिना पाँव चलता | बिना पाँव चलता | ||
पंक्ति 56: | पंक्ति 56: | ||
न मैं | न मैं | ||
न तुम | न तुम | ||
− | रह | + | रह गए हम |
केवल हम | केवल हम | ||
केवल हम | केवल हम | ||
न रुके हुए न बीतते हुए | न रुके हुए न बीतते हुए | ||
− | न | + | न सोए न जागते</poem> |
16:15, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
तुम
मैं
शहर
और यह कोहरा
पद्चाप से
चौंककर
लिपटता हुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
प्रश्नचिन्ह-सा
मेरे-तुम्हारे
बीच
अनजाने में ही
हमारे
छूते जिस्म
फैले
कोहरे के इस गहन
अम्बार में
धीरे
धीरे
एक दूसरे के निकट
निकटतम
एक दूसरे में डूबते
मैंने झुककर
चूमा तुम्हें
तो कोहरा भाग खड़ा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
सफ़ेद खरगोश की तरह
रह गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
ऊंघता हुआ
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
स्तब्ध
मौन
बहने लगी हो मुझमें तुम
जैसे कोहरे में सरकती पवन
अब न है कोहरा
न शहर
न मैं
न तुम
रह गए हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
न सोए न जागते