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"आँखों में जो बात हो गई है / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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आँखों में जो बात हो गयी है
 
आँखों में जो बात हो गयी है
एक शरहे-हयात हो गयी है।
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जब दिल की वफ़ात हो गयी है
 
जब दिल की वफ़ात हो गयी है
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जिस शै पर नज़र पड़ी है तेरी
 
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तस्वीरे-हयात हो गयी है।
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दिल में तुझ से थी जो शिकायत
 
दिल में तुझ से थी जो शिकायत
अब ग़म के निकात हो गयी है।
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मुझसे इस बात हो गयी है।
 
मुझसे इस बात हो गयी है।
  
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शामे-जुल्मात हो गयी है।
 
शामे-जुल्मात हो गयी है।
  
इस दौर में जिन्दगी बसर की
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इस दौर में जिन्दगी बसर<ref>मानव</ref> की
 
बीमार की रात हो गयी है।
 
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मिटने लगीं ज़िन्दगी की कद्रें
 
मिटने लगीं ज़िन्दगी की कद्रें
जब ग़म से नजात हो गयी है।
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वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाय
 
वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाय
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पहले वो निगाह इक किरन थी
 
पहले वो निगाह इक किरन थी
अब बर्क़-सिफ़ात हो गयी है।
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अब बर्क़-सिफ़ात<ref>बिजली की विशेषता रखने वाली</ref> हो गयी है।
  
 
जिस चीज को छू दिया है तूने
 
जिस चीज को छू दिया है तूने
एक बर्गे-नबात हो गयी है।
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एक बर्गे-नबात<ref>हरी डाली</ref> हो गयी है।
  
 
इक्का-दुक्का सदाये-जंजीर
 
इक्का-दुक्का सदाये-जंजीर
जिन्दाँ में रात हो गयी है।
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जिन्दाँ<ref>कारागार</ref> में रात हो गयी है।
  
 
एक-एक सिफ़त ’फ़िराक़’ उसकी
 
एक-एक सिफ़त ’फ़िराक़’ उसकी
 
देखा है तो ज़ात हो गयी है।
 
देखा है तो ज़ात हो गयी है।
  
शरहे-हयात = जीवन की व्याख्या, तस्वीरे-हयात = जीवन का चित्र, निकात = मर्म, इक़रारे-गुनाहे-इश्क़ = इश्क़ के गुनाह का इक़रार, बसर = मानव, कद्रें = मूल्यों, नजात = मुक्ति,  बर्क़-सिफ़ात = बिजली की विशेषता रखने वाली, बर्गे-नबात = हरी डाली, जिन्दाँ = कारागार।
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20:25, 23 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

  
आँखों में जो बात हो गयी है
एक शरहे-हयात<ref>जीवन की व्याख्या</ref> हो गयी है।

जब दिल की वफ़ात हो गयी है
हर चीज की रात हो गयी है।

ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझको
क्यों ग़म से नजात हो गयी है।

मुद्दत से खबर मिली न दिल को
शायद कोई बात हो गयी है।

जिस शै पर नज़र पड़ी है तेरी
तस्वीरे-हयात<ref>जीवन का चित्र</ref> हो गयी है।

दिल में तुझ से थी जो शिकायत
अब ग़म के निकात<ref>मर्म</ref> हो गयी है।

इक़रारे-गुनाहे-इश्क़<ref>इश्क़ के गुनाह का इक़रार</ref> सुन लो
मुझसे इस बात हो गयी है।

जो चीज भी मुझको हाथ आयी
तेरी सौगात हो गयी है।

क्या जानिये पहले मौत क्या थी
अब मेरी हयात हो गयी है।

घटते-घटते तेरी इनायत
मेरी औक़ात हो गयी है।

उस चस्मे-सियह की याद अक्सर
शामे-जुल्मात हो गयी है।

इस दौर में जिन्दगी बसर<ref>मानव</ref> की
बीमार की रात हो गयी है।

जीती हुई बाज़ी-ए-मुहब्बत
खेला हूँ तो मात हो गयी है।

मिटने लगीं ज़िन्दगी की कद्रें
जब ग़म से नजात<ref>मुक्ति</ref> हो गयी है।

वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाय
जब आये हैं, रात हो गयी है।

दुनिया है कितनी बे-ठिकाना
आशिक़ की बरात हो गयी है।

पहले वो निगाह इक किरन थी
अब बर्क़-सिफ़ात<ref>बिजली की विशेषता रखने वाली</ref> हो गयी है।

जिस चीज को छू दिया है तूने
एक बर्गे-नबात<ref>हरी डाली</ref> हो गयी है।

इक्का-दुक्का सदाये-जंजीर
जिन्दाँ<ref>कारागार</ref> में रात हो गयी है।

एक-एक सिफ़त ’फ़िराक़’ उसकी
देखा है तो ज़ात हो गयी है।


शब्दार्थ
<references/>