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"तालिबे-दीद पर आँच आये यह मंज़ूर नहीं / सफ़ी लखनवी" के अवतरणों में अंतर
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+ | दिल से नज़दीक है, आँखों से भी कुछ दूर नहीं। | ||
+ | मगर इस पर भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं॥ | ||
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+ | छेड़ दे साज़े-अनलहक़ जो दुबारा सरे-दार। | ||
+ | बज़्मे-रिन्दाँ में अब ऐसा कोई मन्सूर नहीं॥ | ||
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+ | हमको परवाना-ओ-बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़? | ||
+ | गुल में वह रंग नहीं, शमअ़ में वो नूर नहीं॥ | ||
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+ | कभी ‘कैसे हो सफ़ी?’ पूछ तो लेता कोई। | ||
+ | दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं॥ | ||
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22:18, 23 अगस्त 2009 का अवतरण
न ख़ामोश रहना मेरे हम-सफ़ीरो!
जब आवाज़ दूँ तुम भी आवाज़ देना॥
ग़ज़ल उसने छेडी़ मुझे साज़ देना।
ज़रा उम्रे-रफ़्ता की आवाज़ देना॥
{{KKRachna
|रचनाकार=सफ़ी लखनवी
}}
तालिबे-दीद पर आँच आए यह मंज़ूर नहीं।
दिल में है वरना वो बिजली जो सरे-तूर नहीं॥
दिल से नज़दीक है, आँखों से भी कुछ दूर नहीं।
मगर इस पर भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं॥
छेड़ दे साज़े-अनलहक़ जो दुबारा सरे-दार।
बज़्मे-रिन्दाँ में अब ऐसा कोई मन्सूर नहीं॥
हमको परवाना-ओ-बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़?
गुल में वह रंग नहीं, शमअ़ में वो नूर नहीं॥
कभी ‘कैसे हो सफ़ी?’ पूछ तो लेता कोई।
दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं॥