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"तालिबे-दीद पर आँच आये यह मंज़ूर नहीं / सफ़ी लखनवी" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=सफ़ी लखनवी
 
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न ख़ामोश रहना मेरे हम-सफ़ीरो!
 
जब आवाज़ दूँ तुम भी आवाज़ देना॥
 
 
ग़ज़ल उसने छेडी़ मुझे साज़ देना।
 
ज़रा उम्रे-रफ़्ता की आवाज़ देना॥
 
 
  
 
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22:19, 23 अगस्त 2009 के समय का अवतरण




तालिबे-दीद पर आँच आए यह मंज़ूर नहीं।
दिल में है वरना वो बिजली जो सरे-तूर नहीं॥

दिल से नज़दीक है, आँखों से भी कुछ दूर नहीं।
मगर इस पर भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं॥

छेड़ दे साज़े-अनलहक़ जो दुबारा सरे-दार।
बज़्मे-रिन्दाँ में अब ऐसा कोई मन्सूर नहीं॥

हमको परवाना-ओ-बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़?
गुल में वह रंग नहीं, शमअ़ में वो नूर नहीं॥

कभी ‘कैसे हो सफ़ी?’ पूछ तो लेता कोई।
दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं॥