भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फूले-फूले पलाश / नचिकेता" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=नचिकेता
 
|रचनाकार=नचिकेता
 
}}
 
}}
[[Category:गीत]]
+
{{KKCatNavgeet}}
 
+
<poem>
 
+
 
+
 
फूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे
 
फूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे
 
  
 
फिर मौसम के लाल अधर से
 
फिर मौसम के लाल अधर से
 
 
मुस्कानों की झींसी बरसे
 
मुस्कानों की झींसी बरसे
 
 
आमों के मंजर की खुशबू पवन चुराए रे
 
आमों के मंजर की खुशबू पवन चुराए रे
 
  
 
पकड़ी के टूसे पतराए
 
पकड़ी के टूसे पतराए
 
 
फूल नए टेसू में आए
 
फूल नए टेसू में आए
 
 
देवदार-साखू के वन लगते महुआये रे
 
देवदार-साखू के वन लगते महुआये रे
 
  
 
धरती लगा महावर हुलसी
 
धरती लगा महावर हुलसी
 
 
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
 
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
 
 
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे
 
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे
 
  
 
धूप फसल का तन सहलाए
 
धूप फसल का तन सहलाए
 
 
मन का गोपन भेद बताए
 
मन का गोपन भेद बताए
 
 
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे
 
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे
 
  
 
वंशी-मादल के स्वर फूटे
 
वंशी-मादल के स्वर फूटे
 
 
गाँव-शहर के अंतर टूटे
 
गाँव-शहर के अंतर टूटे
 
 
भेद-भाव की शातिर दुनिया इसे न भाए रे।
 
भेद-भाव की शातिर दुनिया इसे न भाए रे।
 +
</poem>

17:53, 24 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

फूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे

फिर मौसम के लाल अधर से
मुस्कानों की झींसी बरसे
आमों के मंजर की खुशबू पवन चुराए रे

पकड़ी के टूसे पतराए
फूल नए टेसू में आए
देवदार-साखू के वन लगते महुआये रे

धरती लगा महावर हुलसी
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे

धूप फसल का तन सहलाए
मन का गोपन भेद बताए
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे

वंशी-मादल के स्वर फूटे
गाँव-शहर के अंतर टूटे
भेद-भाव की शातिर दुनिया इसे न भाए रे।