भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम ह...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=अहमद फ़राज़
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
{{KKCatGhazal}}
 +
<poem>
 
तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों
 
तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों
 
 
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम  हैं दोस्तों
 
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम  हैं दोस्तों
 
  
 
किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
 
किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
 
 
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तों
 
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तों
 
  
 
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
 
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
 
+
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों
अपनी तलाश मैं तो हम ही हम हैं दोस्तों
+
 
+
  
 
कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
 
कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
 
 
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तों
 
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तों
 
  
 
इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
 
इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
 +
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तों
  
अ़ब दिल की रोनके भी कोई दम हैं दोस्तों
+
सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर हैं
 
+
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तों
 
+
</poem>
सब कुछ सही "फ़राज़' पर इतना ज़रूर हैं
+
 
+
दुनिया मैं ऐसे लोग बहोत कम हैं दोस्तों
+

09:37, 25 अगस्त 2009 का अवतरण

{KKGlobal}}

तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तों

किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तों

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों

कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तों

इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तों

सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर हैं
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तों