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मैं तुम्हारी सुराही की टूटी गरदन लोट रहा चूर-चूर
सूर्य खोलता है इन्द्रधनुष का रंग कोई निपट अकेला कभी-कभार
कसता ही जाता है रेत का घेरा
कौन बादल ले गया वो चन्द्रमा और हरीतिमा
जो बुना करती थी रेत की छाँह में ओस के रूमाल
फिर भी किसी ने तो बचा रखा होगा मेरे लिए खजूर के पत्ते भर पानी
कोई वजीख़ाना कोई धोबीघाट कोई प्रेतघट