Changes

धूप / विनोद निगम

497 bytes added, 15:25, 10 सितम्बर 2009
आ गये दिन, धूप के सत्संग के
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर पढ़्नें लगे हैं, धूप के अखबार
फुरसत से दिशाओं में
निकल फूलों के नशीले बार से
लड़्खड़ाती है हवा
पाँव दो पड़्ते नहीं हैं ढंग से।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,393
edits