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"ज़िन्दगी / हरीश बी० शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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23:20, 19 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

जीवन को
धूप-छाँव का सहकार कहो
या दाना चुगती चिड़ियों के साथ
नादाँ का व्यवहार
पागल के हाथ पड़ी माचिस-सी होती है ज़िन्दगी

दीवाली की लापसी, ईद की सिवइयाँ
क्रिसमस ट्री पर सजे चॉकलेट्स से
बहुत मीठी होती है ज़िन्दगी

जिसे जीना पड़ता है
लेकिन सुधी पाठक ज्यादा माथा नहीं दुखाते
किताब बंद करते होते हैं
जब समाप्त लिखा आता है।

पेपरवेट
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
'आखा' देकर, पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथाएं सुनाती बुढ़ियाएँ
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी है

लेकिन अब ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती है
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ मे रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएँ तलाश, कथाएँ फिर सुनी जाती है
फिर होती है ऐसे पतियों पर बहस

घंटों चलती है - उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रोपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
ख़ूबसूरती भी शेयर की जाती है

'हम ही क्यों रखें व्रत'
ऐसी सुगबुगाहट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने