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"निगाहों में वो हल कई मसायले - हयात के / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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22:33, 21 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

निगाहों में वो हल कई मसायले-हयात<ref>जीवन की समस्याओं</ref> के
वो गेसूओं के ख़म कई मआमिलात के ।

हमारी उँगलियों में धड़कने हैं साज़े - दह्र की
हम अह्‌ले-राज़ पारखी हैं, नब्ज़े कायनात के।

है आबो-गिल में शोलाज़न बस एक साज़े-सरमदी
हिजाबे-दह्‌र परदे हैं, तरन्नुमे-हयात के।

ये क़शक़ा-ए-सुर्ख़-सुर्ख़, रूकशे-चिराग़े-तूर है
जबीने कुफ़्र से अयाँ रमूज़ इलाहियात के।

असातज़ा के बस जो थे, सब मुझे सिखा दिये
सुकूते-सरमदी ने वो निकात शेरयात के।

नज़र जो साफ़ आ रहे हैं ख़ानाहा-ए-बेख़तर
वही बिसाते - गंजफ़ा में हैं मुक़ाम मात के।

हज़ारहा इशारे पायेंगे, तलाश शर्त है
क़दींम फ़िक्रयात में, जदीद फ़िक्रयात के।

निजात के लिये न इन्तेज़ारे-मर्गो-हश्र कर
कि कै़दो-बन्दे जिन्दगी में राज़ हैं निजात के।

ये सफ़-बसफ़ मनाज़िरे-ज़माना देख गौर से
है आईना-दर-आईना सबक़ तहय्युरात के।

जमाहियाँ सी ले रहे हैं आसमान पर नुज़ूम<ref>सितारे</ref>
सुना रही है ज़िन्दगी, फ़साने कटती रात के।

कहाँ से हाथ लाइये इन्हे उठाने के लिये
हिजाब - दर - हिजाब जल्वे हैं त‍अय्युनात के।

किताब में ये दर्सयात ढूँढना फ़ुज़ूल है
उन अँखड़ियों से सीख कुछ रमूज़ कुफ़्रियात के।

इन्ही में अपने ख़तो-खाल<ref>चेहरा-मोहरा</ref> देखती है ज़िन्दगी
ये आबो-ताबे-शेर हैं कि आइने हयात के।

तमाम उम्र इश्क़ का जवाज़ ढूँढते रहे
ये अह्‌ले-रस्म हो रहे इन्ही तकल्लुफ़ात के।

क़लम की चंद जुंबिशों से और मैंने क्या किया
यही कि खुल गये हैं कुछ रमूज़-से हयात के।

उफ़ुक़ से ता उफ़ुक़ ये क़ायनात महवे-ख़ाब थी
न पूछ दे गये हैं क्या मुझे वो लमहे रात के।

नमाज़ शाएरी है और इमामे-फ़न ’फ़िराक़’ है
मकूअ<ref>झुकना</ref> और सुजूद<ref>सिजदा</ref> ज़ीरो-बम हैं सौतियात<ref>ध्वनिशास्त्र</ref> के।


शब्दार्थ
<references/>