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− | सुधियों की चादर अनबीनी, | + | ::सुधियों की चादर अनबीनी, |
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− | भरने लगा एक खोयापन, | + | ::भरने लगा एक खोयापन, |
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− | + | प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की| | |
− | प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत | + | </poem> |
19:45, 24 सितम्बर 2009 का अवतरण
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की|
साँस रोक कर खड़े हो गये
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की|
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में-
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की|