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"टुकडे अस्तित्व के / राजीव रंजन प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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मैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी है
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वो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊं
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लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं
  
जरासंध की जंघाओं से दो फांक हो कर<br />
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मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो
जुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के<br />
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टुकडा उठा के तृण का
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फिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली है<br />
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लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं<br />
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मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो<br />
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मैं मुस्कुरा रहा हूँ
टुकडा उठा के तृण का<br />
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मैं मिटने जा रहा हूँ
दो फांक कर के तुमने उलटा रखा है एसे<br />
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तुममें समा रहा हूँ
जैसे कि वक्त मेरा मुझको छला किये है<br />
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फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?
 
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तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के
मैं मुस्कुरा रहा हूँ<br />
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जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...
मैं मिटने जा रहा हूँ<br />
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तुममें समा रहा हूँ<br />
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तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के<br />
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जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...<br />
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15:00, 30 सितम्बर 2009 का अवतरण

जरासंध की जंघाओं से दो फांक हो कर
जुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के
जैसे कि छोटी नदिया गंगा में मिल गयी हो
चाहो तो जाँच कर लो
अब मिल गया है सब कुछ, एक रंग हो गया है
हर हर हुई है गंगे, हर कुछ समा गया है
फिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली है
मैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी है
वो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊं
लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं

मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो
टुकडा उठा के तृण का
दो फांक कर के तुमने उलटा रखा है ऐसे
जैसे कि वक्त मेरा मुझको छला किये है

मैं मुस्कुरा रहा हूँ
मैं मिटने जा रहा हूँ
तुममें समा रहा हूँ
फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?
तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के
जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...