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"वाह बेटे आषाढ़! / जीवकांत" के अवतरणों में अंतर

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नदी में घुस आया है पानी आषाढ़ का
तोड़ डाले हैं बंधन-रोक (बाँध-छेक)
फोड़ डाला है तहबन्द का पेट
बाहर घूमने निकल गया है पानी

मेघवाली हवा घर में अन्दर घुस आई है
छिपाकर रखे चने के बीज को
गीला कर दिया है
फफूंद से ढक लिया है अन्न को
बरबाद कर डाला है

ऊँची दीवार की छोटी दरार को
ढूंढकर पा लिया है बूंद ने
सारी बूंदें अब आ रही हैं
उसी दरार से उछलकर
पच्चीस हाथ दीवार गिरी है
भरभरा कर
सतहिया बरखा में

अशोक के पत्ते में नई हरियाली थी
जेठ भर यह हरियाली कच्ची थी
थोड़ा हरा-पीला था पत्ता
आर्द्रा की बूंदें झहरती रही हैं उधर लगातार
पत्ता मोटा-ताज़ा निकल आया है
अब नहीं दिखा पाएगा वह आर-पार ज्योति
उसकी हरियाली हो गई प्रगाढ़
वाह बेटे आषाढ़!