भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आगे गहन अन्धेरा है / नेमिचन्द्र जैन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नेमिचन्द्र जैन }} {{KKCatGeet}} <poem> आगे गहन अन्धेरा है, मन ...)
(कोई अंतर नहीं)

20:26, 4 अक्टूबर 2009 का अवतरण

आगे गहन अन्धेरा है, मन रुक-रुक जाता है एकाकी
अब भी है टूटे प्राणों में किस छवि का आकर्षण बाक़ी?
चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना,
एक बार फिर से दो नैनों कि नीलम-नभ में उड़ जाना,
उभर-उभर आते हैं मन में वे पिछले स्वर सम्मोहन के,
गूँज गए थे पल-भर को बस प्रथम प्रहर में जो जीवन के;

किन्तु अन्धेरा है यह, मैं हूँ, मुझको तो है आगे जाना-
जाना ही है- पहन लिया है मैंने मुसाफ़िरी का बाना।

आज मार्ग में मेरे अटक न जाओ यों, ओ सुधि की छलना!
है निस्सीम डगर मेरी, मुझको तो सदा अकेले चलना,
इस दुर्भेद्य अन्धेरे के उस पार मिलेगा मन का आलम;
रुक न जाए सुधि के बाँधों से प्राणों की यमुना का संगम,
खो न जाए द्रुत से द्रुततर बहते रहने की साध निरन्तर,
मेरे उसके बीच कहीं रुकने से बढ़ न जाए यह अन्तर।