"वनबेला / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
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+ | कर भस्मी भूत समस्त विश्व को एक शेष, | ||
+ | उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश। | ||
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+ | ::मैं मन्द-गमन, | ||
+ | घर्माक्त, विरक्त, पार्श्व-दर्शन से खींच नयन, | ||
+ | चल रहा नदीतट को करता मन में विचार— | ||
+ | :’हो गया व्यर्थ जीवन, | ||
+ | :मैं रण में गया हार!’ | ||
+ | ::सोचा न कभी— | ||
+ | अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।’ | ||
+ | :--इस तरह बहुत कुछ। | ||
+ | :::आया निज इच्छित स्थल पर | ||
+ | ::बैठा एकान्त देखकर | ||
+ | ::मर्माहत स्वर भर! | ||
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+ | फिर लगा सोचने यथासूत्र—’मैं भी होता | ||
+ | यदि राजपुत्र—मैं क्यों न सदा कलंक ढोता, | ||
+ | ये होते—जितने विद्याधर—मेरे अनुचर, | ||
+ | मेरे प्रसाद के लिये विनत-सिर उद्यत-कर; | ||
+ | मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर, | ||
+ | सम्मिलित कण्ठ से गाते मेरी कीर्ति अमर, | ||
+ | ::जीवन चरित्र | ||
+ | लिख अग्रलेख अथवा, छापते विशाल चित्र। | ||
+ | इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार | ||
+ | होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र-पार, | ||
+ | देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित | ||
+ | एकाधिकार भी रखते धन पर, अविचल-चित | ||
+ | होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार, | ||
+ | चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हें ही सुनिर्धार, | ||
+ | पैसे में दस राष्ट्रीय गीत रचकर उनपर | ||
+ | कुछ लोग बेचते गा गा गर्दभ-मर्दन-स्वर, | ||
+ | हिन्दी सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग | ||
+ | रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग, | ||
+ | मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार, | ||
+ | लार्ड के लाड़लों को देता दावत—विहार; | ||
+ | इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास मास | ||
+ | पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास | ||
+ | वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल, | ||
+ | पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल, | ||
+ | दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर | ||
+ | निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर, | ||
+ | होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर, | ||
+ | बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर; | ||
+ | फिर देता दृढ़ सन्देश देश को मर्मान्तिक, | ||
+ | भाषा के बिना न रहती अन्य गन्ध प्रान्तिक, | ||
+ | जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर, | ||
+ | समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर फिर, | ||
+ | :::फिर पितासंग | ||
+ | जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग, | ||
+ | :::करता प्रचार | ||
+ | मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार! | ||
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+ | :::तप तप मस्तक | ||
+ | हो गया सान्ध्य नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक; | ||
+ | खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द | ||
+ | प्रेयसी के अलक से आती ज्यों स्निग्ध गन्ध, | ||
+ | ’आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ, | ||
+ | :::सोचा सत्वर, | ||
+ | देखा फिरकर, घिरकर हँसती उपवन-बेला | ||
+ | :::जीवन में भर— | ||
+ | :::यह ताप, त्रास | ||
+ | मस्तक पर लेकर उठी अतल की अतुल साँस, | ||
+ | :::ज्यों सिद्धि परम | ||
+ | भेदकर कर्म-जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम | ||
+ | :::आई ऊपर, | ||
+ | जैसे पार कर क्षार सागर | ||
+ | :::अप्सरा सुघर | ||
+ | सिक्त-तन-केश, शत लहरों पर | ||
+ | कांपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर। | ||
+ | बोला मैं—’बेला, नहीं ध्यान | ||
+ | लोगों का जहाँ, खिली हो बनकर वन्य गान! | ||
+ | :::जब ताप प्रखर, | ||
+ | लघु प्याले में अतल सुशीतलता ज्यों भर | ||
+ | तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान! | ||
+ | लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास | ||
+ | सहसा बह चली सान्धय वेला की सुबातास, | ||
+ | झुक झुक, तन तन, फिर झूम झूम हँस हँस, झकोर, | ||
+ | चिरपरचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर, | ||
+ | भर मुहुर्मुहुर, तन-गन्ध विमल बोली बेला— | ||
+ | मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला | ||
+ | की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श | ||
+ | हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श। | ||
+ | |||
+ | :::मैं रुका वहीं, | ||
+ | :::वह शिखा नवल | ||
+ | आलोक स्निग्ध भर दिखा गई पथ जो उज्जवल; | ||
+ | मैंने स्तुति की—’हे वन्य वन्हिकी तन्वि नवल! | ||
+ | कविता में कहां खुले ऐसे दुग्धधवल दल?— | ||
+ | :::यह अपल स्नेह,-- | ||
+ | विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों कर | ||
+ | :::हार-उर गेह?— | ||
+ | :::गति सहज मन्द | ||
+ | यह कहाँ कहाँ वामालकचुम्बित पुलक गन्ध? | ||
+ | |||
+ | ::’केवल आपा खोया, खेला | ||
+ | :::इस जीवन में, | ||
+ | ::कह सिहरी तन में वन-बेला।’ | ||
+ | ’कूऊ कू—ऊ बोली कोयल अन्तिम सुख-स्वर, | ||
+ | ’पी कहाँ’ पपीहा-प्रिया मधुर विष गई छहर, | ||
+ | |||
+ | :::उर बढा आयु | ||
+ | पल्लव-पल्लव को हिला हरित बह गई वायु, | ||
+ | लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता | ||
+ | ::तैरी, देखतीं तमश्चरिता | ||
+ | छबि वेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता, | ||
+ | :::शत-नयन-दृष्टि | ||
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21:51, 10 अक्टूबर 2009 का अवतरण
वर्ष का प्रथम
पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम
किसलयों बँधे,
पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे
प्रणय के गान,
सुनकर सहसा,
प्रखर से प्रखर तर हुआ तपन-यौवन सहसा;
ऊर्जित, भास्वर
पुलकित शत शत व्याकुल कर भर
चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर
क्षोभ से, लोभ से, ममता से,
उत्कण्ठा से, प्रणय के नयन की समता से,
सर्वस्व दान
देकर, लेकर सर्वस्व प्रिया का सुकृत मान।
दाब में ग्रीष्म,
भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप,
प्रस्वेद, कम्प,
ज्यों ज्यों युग उर में और चाप—
और सुख-झम्पः
निश्वास सघन
पृथ्वी की--बहती लू: निर्जीवन
जड़-चेतन।
यह सान्ध्य समय,
प्रलय का दृश्य भरता अम्बर
पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय,
निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,
कर भस्मी भूत समस्त विश्व को एक शेष,
उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।
मैं मन्द-गमन,
घर्माक्त, विरक्त, पार्श्व-दर्शन से खींच नयन,
चल रहा नदीतट को करता मन में विचार—
’हो गया व्यर्थ जीवन,
मैं रण में गया हार!’
सोचा न कभी—
अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।’
--इस तरह बहुत कुछ।
आया निज इच्छित स्थल पर
बैठा एकान्त देखकर
मर्माहत स्वर भर!
फिर लगा सोचने यथासूत्र—’मैं भी होता
यदि राजपुत्र—मैं क्यों न सदा कलंक ढोता,
ये होते—जितने विद्याधर—मेरे अनुचर,
मेरे प्रसाद के लिये विनत-सिर उद्यत-कर;
मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर,
सम्मिलित कण्ठ से गाते मेरी कीर्ति अमर,
जीवन चरित्र
लिख अग्रलेख अथवा, छापते विशाल चित्र।
इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार
होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र-पार,
देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित
एकाधिकार भी रखते धन पर, अविचल-चित
होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार,
चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हें ही सुनिर्धार,
पैसे में दस राष्ट्रीय गीत रचकर उनपर
कुछ लोग बेचते गा गा गर्दभ-मर्दन-स्वर,
हिन्दी सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग
रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग,
मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार,
लार्ड के लाड़लों को देता दावत—विहार;
इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास मास
पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास
वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल,
पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल,
दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर
निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर,
होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर,
बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर;
फिर देता दृढ़ सन्देश देश को मर्मान्तिक,
भाषा के बिना न रहती अन्य गन्ध प्रान्तिक,
जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर,
समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर फिर,
फिर पितासंग
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग,
करता प्रचार
मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार!
तप तप मस्तक
हो गया सान्ध्य नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक;
खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द
प्रेयसी के अलक से आती ज्यों स्निग्ध गन्ध,
’आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ,
सोचा सत्वर,
देखा फिरकर, घिरकर हँसती उपवन-बेला
जीवन में भर—
यह ताप, त्रास
मस्तक पर लेकर उठी अतल की अतुल साँस,
ज्यों सिद्धि परम
भेदकर कर्म-जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम
आई ऊपर,
जैसे पार कर क्षार सागर
अप्सरा सुघर
सिक्त-तन-केश, शत लहरों पर
कांपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर।
बोला मैं—’बेला, नहीं ध्यान
लोगों का जहाँ, खिली हो बनकर वन्य गान!
जब ताप प्रखर,
लघु प्याले में अतल सुशीतलता ज्यों भर
तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान!
लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास
सहसा बह चली सान्धय वेला की सुबातास,
झुक झुक, तन तन, फिर झूम झूम हँस हँस, झकोर,
चिरपरचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर,
भर मुहुर्मुहुर, तन-गन्ध विमल बोली बेला—
मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला
की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श
हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श।
मैं रुका वहीं,
वह शिखा नवल
आलोक स्निग्ध भर दिखा गई पथ जो उज्जवल;
मैंने स्तुति की—’हे वन्य वन्हिकी तन्वि नवल!
कविता में कहां खुले ऐसे दुग्धधवल दल?—
यह अपल स्नेह,--
विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों कर
हार-उर गेह?—
गति सहज मन्द
यह कहाँ कहाँ वामालकचुम्बित पुलक गन्ध?
’केवल आपा खोया, खेला
इस जीवन में,
कह सिहरी तन में वन-बेला।’
’कूऊ कू—ऊ बोली कोयल अन्तिम सुख-स्वर,
’पी कहाँ’ पपीहा-प्रिया मधुर विष गई छहर,
उर बढा आयु
पल्लव-पल्लव को हिला हरित बह गई वायु,
लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता
तैरी, देखतीं तमश्चरिता
छबि वेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,
शत-नयन-दृष्टि