{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्या ग्राम्यान / सुमित्रानंदन पंत
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<poem>
देख रहा हूँ आज विश्व को ग्रामीण नयन से
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से !
देख रहा हूँ आज विश्व को ग्रामीण नयन से <br>ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन, सोच रहा हूँ जटिल जगत परजन हैं जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन पर जन मन से साधन !<br><br>
ज्ञान नहीं रूप जगत् है, तर्क नहीं रूप दृष्टि है, कला न भाव विवेचनरूप बोधमय है मन, <br> जन हैं जग है, क्षुधामाता पिता बंधु, कामबांधव, इच्छाएँ जीवन साधन !<br><br>परिजन पुरजन भू गो धन।
रूप जगत् हैरूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, रूप दृष्टि हैजाति पाँचि के बंधन, रूप बोधमय है मन, <br> माता पिता बंधु, बांधवनियत कर्म हैं, परिजन पुरजन भू गो धन।<br><br>नियत कर्म फल-जीवन चक्र सनातन !
रूढ़ि रीतियों जन्म मरण के प्रचलित पथ, जाति पाँचि सुख दुख के बंधनताने बानों का जीवन, <br> नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल-जीवन चक्र सनातन निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन !<br><br>
जन्म मरण के सुख दुख के ताने बानों का जीवनदेख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से, <br> निठुर नियति के धूपछाँह सोच रहा हूँ जग का रहस्य है गोपन पर, मानव जीवन पर जन मन से !<br><br>
देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन सेरूढ़ि नहीं है, <br>रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम, सोच रहा हूँ जग परजन जन में है जीव, मानव जीव-जीवन पर में सब जन मन से हैं सम !<br><br>
रूढ़ि नहीं ज्ञान वृथा है, रीति नहीं हैतर्क वृथा, जाति वर्ण केवल भ्रमसंस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन, <br> जन जन प्रथम जीव है मानव में , पीछे है जीव, जीव-जीवन में सब सामाजिक जन हैं सम !<br><br>
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन, <br>प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन !<br><br> मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन, <br> वृथा धर्म, गणतंत्र-उन्हें यदि प्रिय न जाव जन जीवन !<br/poem>