भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गिरते जीवन को उठा दिया, / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=अर्चना / सूर…)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
तुमने कितना धन लुटा दिया!
 
तुमने कितना धन लुटा दिया!
  
 +
सूखी आशा की विषम फांस,
 +
खोलकर साफ की गांस-गांस,
 +
छन-छन, दिन-दिन, फिर मास-मास,
 +
मन की उलझन से छुटा दिया।
  
 +
बैठाला ज्योतिर्मुख करकर,
 +
खोली छवि तमस्तोम हरकर,
 +
मानस को मानस में भरकर,
 +
जन को जगती से खुटा दिया।
 +
 +
पंजर के निर्जर के रथ से,
 +
सन्तुलिता को इति से, अथ से,
 +
बरने को, वारण के पथ से,
 +
काले तारे को टुटा दिया।
 
</poem>
 
</poem>

14:44, 18 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

गिरते जीवन को उठा दिया,
तुमने कितना धन लुटा दिया!

सूखी आशा की विषम फांस,
खोलकर साफ की गांस-गांस,
छन-छन, दिन-दिन, फिर मास-मास,
मन की उलझन से छुटा दिया।

बैठाला ज्योतिर्मुख करकर,
खोली छवि तमस्तोम हरकर,
मानस को मानस में भरकर,
जन को जगती से खुटा दिया।

पंजर के निर्जर के रथ से,
सन्तुलिता को इति से, अथ से,
बरने को, वारण के पथ से,
काले तारे को टुटा दिया।