"वा पटपीत की फहरानि / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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वा पटपीत की फहरानि। | वा पटपीत की फहरानि। | ||
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कर धरि चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥ | कर धरि चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥ | ||
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रथ तें उतरि अवनि आतुर ह्वै, कचरज की लपटानि। | रथ तें उतरि अवनि आतुर ह्वै, कचरज की लपटानि। | ||
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मानौं सिंह सैल तें निकस्यौ महामत्त गज जानि॥ | मानौं सिंह सैल तें निकस्यौ महामत्त गज जानि॥ | ||
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जिन गुपाल मेरा प्रन राख्यौ मेटि वेद की कानि। | जिन गुपाल मेरा प्रन राख्यौ मेटि वेद की कानि। | ||
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सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आनि॥ | सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आनि॥ | ||
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16:24, 24 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राग देश
वा पटपीत की फहरानि।
कर धरि चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥
रथ तें उतरि अवनि आतुर ह्वै, कचरज की लपटानि।
मानौं सिंह सैल तें निकस्यौ महामत्त गज जानि॥
जिन गुपाल मेरा प्रन राख्यौ मेटि वेद की कानि।
सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आनि॥
भावार्थ :- हाथ में सुदर्शन चक्र लिये हुए वह तेजी से दौड़ना कोई कैसे भूल सकता है? वह शोभा ही
निराली है। रथ से कूदकर भीष्म की ओर झपट रहे हैं। पीतांबर फहरा रहा है। अलकों
में धूल लगी हुई है। श्रीकृष्ण उस समय ऐसे दिखाई देते हैं, मानो किसी महामदोद्धत
गजेन्द्र पर कोई क्रुद्ध केसरी आक्रमण कर रहा हो।
शब्दार्थ :- पटपीथ =पीताम्बर। कर धरी =हाथ में लेकर। बानि =बानिक, रूप। अवनि =भूमि। आतुर ह्वै = जल्दी में घबरा-कर। कच =बाल। रज =धूल सैल =पर्वत। कानि = मर्यादा।